पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४४१

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रामचरित-मानस ३८२ बोया है वह लवती हूँ और जो दिया है वह पाती हूँ। कोई भी राजा हो हमारी कौन सी हानि है, क्या दासी छोड़ कर अब रानी हो जाऊँगी? ॥३॥ जार जोग सुभाउ हमारा । अनमल देखि न जाय तुम्हारा ता ते कछुक बात अनुसारी । छमिय देबि बड़ि चूक हमारी ॥ हमारा स्वभाव जलाने योग्य है कि आप का अनभल मुझ से देखा नहीं जाता। हे देवि! इसी से कुछ वाते मुंह से निकल पड़ी हैं, हमारी इस बड़ी चूक को क्षमा कीजिये ॥ ४ ॥ 'क्षमा कीजिये इस शन्द से भागे कुछ न कहने को कहिए, यह ध्वनि व्यक्षित होती है। दो०-गृढ़-कपट प्रिय-बचन सुनि, तीय-अधर-बुधि रानि । सुर-माया-बस वैरिनिहि, सुहृद जानि पतियानि ॥१६॥ 'स्त्रियों की बुद्धि चञ्चल होती है, रानी केकयी उसके गुप्त धोनेवाजी से भरे हुए वचनों को सुन कर देवताओं की माया के अधीन हुई। वैरिन मन्धरा को मित्राणी समझ कर विश्वास मान लिया ॥ १६ ॥ अधर' शब्द का कोई कोई इस प्रकार अथ करते हैं "कि-स्त्रियों की बुद्धि ओठों में होती है अर्थात् कहा सुनी से चल विचल हो जाती है" । प्रथम तो औठ बुद्धि के रहने का स्थान नहीं है, इसलिए पलात् उसे श्रीट में स्थापन करना युक्तियुक्त नहीं । दूसरे यहाँ तात्पर्य चञ्चलता से है जो एक समान स्थिर न रहे। चौ०-सादर पुनि पुनि पूछति ओही । सबरी गान मृगी जनु माही ॥ तसि मति फिरी अहइ जसि भाबी । रहसी चेरि घात जनु फाबी॥१॥ फिर फिर आदर के साथ उससे पूछती है, ऐसा मालूम होता है मानों सवरी के गान पर मृगी मोहित हुई हो । जैसा होनहार है वैली बुद्धि बदल गई, ऐसा जान पड़ता है कि मानों अपना दाँच लहा हुआ जान कर चेरी प्रसन्न हुई हो ॥६॥ कहत डेराऊँ। धरेहु भार घरफोरी नाऊँ। सजि प्रतीति बहु-बिधि गढ़ि छोली । अवध साढ़साती तब बोली ॥२॥ श्राप पूछती हैं परन्तु मैं कहते हुए डरती हूँ क्योंकि आप ने मेरा नाम घरफोरी रक्खा है । बहुत तरह से गढ़ छोल कर अपना विश्वास जमा लिया तब अयोध्या की साढ़े साती ( शनिकी दशा) रूपिणी मन्धरा बोली ॥२॥ प्रिय सिय राम कहा तुम्ह रानी । रामहि तुम्ह प्रिय सो फुरि बोनी ॥ रहा 'प्रथम अब ते दिन बीते । समउ फिरे रिपु होहिं पिरीते ॥३॥ हे रानी ! आपने कहा कि मुझे सीता और रामचन्द्र प्यारे हैं तथा आपरामचन्द्र को प्रिय हैं, यह बात ठीक है। पर ऐसा पहले था अब वे दिन बीत गये, समय पलटने पर मित्र शत्रु हो जाते हैं ॥३॥ भी