पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४४२

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । भव रामचन्द्र और सीता दोनों तुम्हारे शत्रु हो गये हैं, यह व्यशार्थ वाच्यार्थ के बराबर होने से तुल्यप्रधान गुणीभूत व्यक है। भानु कमल-कुल पोषनिहारा । बिनु जल जारि करइ सोइ छारा ॥ जरितुम्हारि चह सवति उखारी । ऊँधहु करि उपोउ बर बारी ॥४॥ सूर्य कमल-कुल के पालनेवाले हैं, पर बिना जल के वे ही (सूर्य ) उसको जला कर भस्म कर देते हैं । आप को जड़ सौत ( कौशल्या) उखाड़ना चाहती है, इसलिए उत्तम यत्न सपी खाँई (घेरा) से घेर कर उसकी रक्षा कीजिए ॥४॥ मन्थरा ने पहले विशेष बात कही कि समय फिरने पर मित्र भी शत्रु होते हैं । इसका साधारण हटान्त से समर्थन करती है कि कमल-फुल को पोषण करनेवाले सूर्य बिना जल के उसे जला देते हैं । इतने पर भी सन्तुष्ट न होकर विशेष सिद्धान्त ले समर्थन करती है कि तुम्हारी जड़ तुम्हारी सौत उखाड़ना चाहती है, यदि श्रेष्ठ उपाय रूपी खाई से रक्षा न करोगी तो उखड़ जायगी 'विकस्वर अलंकार' है। गुटका और सभा की प्रति में 'बिनु जर जारि करह सोइ छारा' पाठ है, किन्तु राजापुर की प्रति में 'जल' पाठ है। दो-तुम्हहिँ न सोच सोहाग बल, निज बस जानहु राउ । मन मलीन मह-मीठ नृप, राउर सरल सुभाउ ॥१७॥ आप को अहिवात के बल से सोच नहीं है, राजा को अपने वश में समझती हो । पर राजा मन के मैले और मुँह से मीठी बाते करते हैं, आप का सीधा स्वभाव है (इसी से छलबाजी को समझती नहीं हो) ॥१७॥ ची...चतुर गंभीर राम-महतारी । बीच पाइ निज बात सँवारी ॥ पठये भरत भूप ननिऔरे । राम-मातु मत जानब रौरे ॥१॥ रामचन्द्र की माता चतुर और गम्भीर ( जिसकी थाह जल्दी न मिले ) हैं, अन्तर पा कर अपनी बात बना ली। राजा ने भरत को ननिहाल भेजा, इसको आप राम की माता की सलाह जाने ॥१॥ सेवहिं सकल सवति मोहि नीके । गरबित भरत-मातु बल पी के। साल तुम्हार कौसिलहि माई। कपट चतुर नहिं पर लखाई ॥२॥ वे समझती है कि सभी सौते मेरी अच्छी सेवा करती हैं, परन्तु भरत को माता पति के बल से धमएड में चूर रहती है । हे माता ! कौशस्या को आप इसी से अमर रही हो, किन्तु चतुरों का कपट जाहिर नहीं होता (इसी से तुम से मुंह पर मीठी बाते करती हैं और पेट में छल की कुरी धुमा रही हैं ) ॥२॥ राजहि तुम्ह पर प्रेम बिसेखो। सवति 'सुभाउ सकइ नहिँ देखो ॥ रचि प्रपन भूपहि अपनाई। राम-तिमक-हित लगन धराई ॥३॥ राजा का आप.पर अधिक प्रेम है, स्वभाव से ही सौत इसको देख नहीं सकती। जाल रच t