पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४४३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रामचरित मानस । कर राजा को अपने वश में कर के रामचन्द्र के राजतिलक के लिए लग्न निश्चित करा. लिया ॥३॥ यह कुल उचित राम कह दीका । सहि सोहाइ मोहि सुठि नीका ॥ आगिल बोत समुझि डर मोही । देउ दैव फिरि सा फल ओही way. कुल की प्रथा के अनुसार यह उचित ही है कि रामचन्द्र को तिलक हो, यह सभी को सुहावा है और मुझे भी बहुत अच्छा लगता है। पर आगे की बात समझ कर मुझे डर. लगता है, (.इसी से चाहती हूँ कि ) ईश्वर इसका फल उसी ( कौशल्या) को दे ॥ ४॥ दो०-रचि पचि कोटिक कुटिल-पन, कीन्हेसि कपट प्रबोध । कहेसि कथो सत सवति के, जेहि विधि बाढ़ विरोध ॥१८॥ करोड़ों प्रकार से दुष्टता की कल्पना में पूर्ण रूप से लग कर मन्धरा ने भेदभाव सुझाने का प्रयत्न किया। जिस तरह विरोध बढ़े ऐसी सवतियों की सैकड़ों कथाएँ, उसने कहीं ॥१॥ चौ०-भावी बस प्रतीति उर आई । पूछ रानि पुनि सपथ. देवाई ॥ का पूलहु तुम्ह अबहुँ न जाना । निजहित अनहित पसु पहिचाना॥१५ हेनिहार वश हदय में विश्वास आ गया, फिर रानी केकयो उसको सौगन्द दे कर पूछने खगी। मन्थरा ने कहा-क्या पूछती हो ? आपने अब भी नहीं जाना ! अपने मित्र और शत्रु को पशु भी पहचानते हैं॥१॥ भयउ पास दिन सजत समाजू । तुम्ह पाई सुधि माहि सन आजू॥ खाइय पहिरिथ राज तुम्हारे । सत्य कहै नहिँ दोष हमारे ॥२॥ पन्द्रह दिन समान सजते हो गया, पर आपने श्राज मुझ से खबर पाई है ! (यह छल नहीं तो क्या है? ) मैं आप के राज्य में खाती और पहनती है, सच कहने में हमें कोई दोष जाँ असत्य कछु कहब बनाई। तो विधि देइहि हमहिँ सजाई॥ रामहिँ तिलक कालिज भयऊ । तुम्ह कह बिपत्ति-बीज विधि बयजमा यदि कुछ बना कर कहूँगी तो विधाता मुझे दण्ड देगें। जो कल रामचन्द्र को राजा तिलक हुआ तो समझ लेना कि ब्रह्मा ने तुम्हारे लिए विपत्ति के बीज बो दिये ॥३॥ रेख खचाइ कहउँ · बल भाखी । भामिनि भइहु दूध के माखी ॥ जौँ सुत सहित करहु सेवकाई । तो घर रहहु न आन उपाई ॥१॥ हे भामिनी । मैं रेखा खींच कर धस्त-पूर्वक कहती हैं कि आप दूध की मक्खी हुई। यदि, पुत्र के सहित सेवा करोगी तो घर में रहेगी, दूसरा (उपाय घर में रहने का) नहीं है । पूर्वार्द्ध मै मन्धरा का कहना ही है कि अब "तुम घर से बाहर निकाल दी, जामोगी' पर इसे सीधे न कह कर केवल उसका प्रतिबिम्ब मात्र घुमा कर कहना 'ललित अलंकार है नहीं है ।