पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४४४

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । दो०-कद्रू बिनतहि दीन्ह दुख, तुम्हहि कासिला देव । भरत बन्दिगृह सेइहहि, लखन राम के नेब ॥१९॥ (जैसे ) फट्ट ने विनता को दुम्न दिया था, उसी तरह तुम्हे कौशल्या कष्ट देगी। भरत चम्दीखाना सेवन करेंगे और लक्ष्मण रामचन्द्र के नायब (युवराज) होगे ॥१६॥ कद्रू और विनता दोनों कश्यप-मुनि की पत्नी हैं। कद्रू के सर्प और विनता के गाड़ पुत्र हुए। एक बार कद्रू ने पूछा कि सूर्य के घोड़े की पूंछ का रङ्ग कैसा है ? विनता ने कहा श्वेत है किन्तु कद्रू ने काले रहा की बतलाया। दोनों में इस पर विवाद बढ़ा और होड़ (पाजी) लगी कि जिसकी घात झूठ हो वह जन्म भर दूसरे की दासी बन कर रहे । कद्रू ने अपने पुत्रों को समझा कर भेज दिया, वे घोड़े की पूंछ में जा लिपटे जिससे पूंछ कालेर की देख लगी विनता को विवश होकर दासी होना पड़ा और नाना प्रकार का सौत ने उनको काट दिया । चौ०-कैकय-सुता सुनत कटु बानी । कहि न सकइ कछु सहमि सुखानी॥ तन पसेउ कदली जिमि काँपी। कुझरी दसन जीभ तब चाँपी ॥१॥ यह कड़वी बात सुनते ही केकयी लहम कर सूख गई, वह कुछ कह नहीं सकती। शरीर पसीने से तर हो गया और केले की तरह काँपने लगी, तब कुवरी ने बातों तले जीभ दवाया ॥९॥ कुवरी का दाँतों तले जीभ दयाना चेष्टा-सूचक वर्जन का सङ्केत है कि अभी क्या बिगड़ा है ? उपाय हाथ में है, सावधानी से उसे कीजिये। कहि कहि कोटिक कपट कहानी। धीरज धरहु प्रबोधिसि रानी। कीन्हेसि कठिन पढाइ कुपोठू । जिमि न नवइ फिरि उकठि कुकाठू ॥२॥ करोड़ों कपट की कहानियाँ कह कह कर रानी को समझाया कि धीरज धरिये (घबरा- इये नहीं) । दुष्ट पाठ (सबक) पढ़ा कर उसने केकयी को ऐसा कठोर कर दिया जैसे बुरा काट (बघूल मादि) सूख जाने पर फिर नहीं नवता ॥२॥ फिरा करम प्रिय लागि कुचोली । बकिहि सराहइ मानि -मराली ॥ सुनु मन्थरा बात , फुरि तारी । दहिनि आँखि नित फरकइ भारी ॥३॥ भाग्य पलट गया इससे दुष्टता अच्छी लगी, बकुली को हंसिनी मान कर प्रशंसा करती है । हे मन्थरा ! सुन, तेरी बात सच्ची है; मेरी वाहिनी आँख नित्य फड़कती है ॥३॥ दिन प्रति देखउँ राति कुसपने । कहउँ न ताहि माह बस अपने । काह करउँ सखि सूध सुभाऊ । दाहिन बाम न जानउँ काऊ ran प्रतिदिन रात में बुरा स्वप्न देखती हूँ परन्तु अपनी अमानता से तुम से नहीं आया। क्या कर मेरा सीधा स्वभाव कुछ दाहिना और वायाँ कभी नहीं जामती ॥४॥