पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४४५

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रामचरित मानस । केकयी की दाहिनी आँख का फड़कना और दुःस्वप्न का देखना अशुभ-सूचक है, पर उसको रामराज्य होने का कारण मानना 'भ्रान्ति अलंकार' है। केकयी के कहने का तात्पय तो है कि मैं किसी को अपना शत्रु मिन नहीं समझती । यह सीधे न कह कर उसका प्रतिबिम्ब मात्र कथन करना 'ललित अलंकार है। दो अपने पलत न आजु लगि, अनमल काहु क कीन्ह । केहि अघ एकहि बार मोहि, दइय दुसह दुख दीन्ह ॥२०॥ अपने चलते आज तक मैं ने किसी की बुराई नहीं की। फिर किस पाप से विधना ने मुझको एक साथ ही यह असहनीय दुःख दिया ॥ २० ॥ चौ नैहर जनम भरन बरु जाई। जियतं न करवि सवति सेवकाई । अभिबस दैव जियावत जाही। मरन नीक तेह जीव न चाही ॥१॥ परिक मैं नैहर में जाकर जन्म बिताऊँगी, पर जीते जी सौत की सेवा न करूंगी। जिसको ईश्वर शन्न के अधीन रख कर जिलाता है, उसको जीना न चाहिए मर जाना अच्छा है ॥१॥ शन के वश हो कर जीने से मरने को अच्छा समझना अर्थात् वह मृत्यु गुणमयी है जिसले जीवन का असहनीय कष्ट दूर हो 'अनुशा अलंकार है। दीन बचन कह बहु विधि रालो । सुनि कुबरी तिय-माया ठानी । अस कस कहहु मानि सन ऊना । सुख सोहाग तुम्ह कहँ दिन दूना ॥२॥ रानी केकयो बहुत तरह दीनता भरी वाणी कहती है, सुन कर कुवरी ने खियों की पाया फैलायी। वह बोली-श्राप अपने मन में हीनता मान कर ऐसा क्यों कहती हैं। आपका सुख और सौभाग्य दिन दूना अर्थात् प्रतिदिन बढ़ता जायगा ॥२॥ इस चौपाई का साधारण अर्थ के लिवा श्लेप से छिपा हुआ दुसरा अर्थ भी प्रकट होता है कि सुख और लोहाग अब तुम्हे दुसरे दिन नहीं, अाज ही भर है। यह विवृतोक्ति अलंकार' है। जेहि राउर अति अनमल ताका । सोइ पाइहि.यह फल परिपाका । जब ते कुमत सुना में स्वामिनि । भूख न बासर नींद न जामिनि ॥३॥ जिसने श्राप की बड़ी चुगई चाहो है, वही सम्पूर्ण रूप से इसका फल पावेगी। हे स्वामिनी जब से मैं ने यह खोटा मत सुना है, तब से न दिन में भूख लगती है और न रात मैं नींद आती है ॥ ३॥ मन्धरा श्री राजतिलक की खधर पा कर केयी के पास आई है, दिन में भूमं और रात में नींद न लगने की बात भूउ कहती है। कुछ घड़ी के सिवा दिन रात कहाँ बीता है ? पूछेउँ गुनिन्ह रेख तिन्ह खाँची। भरत झुआल होहिं यह साँची ॥ भामिनि करहु त कहउँ उपाऊ । हैं तुम्हरी सेवा बस राऊ ॥४॥ मैं ने गुणियों से पूछा तो उन्होंने रेखा खींच कर कहा है कि यह सत्य है, भरत राजा