पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४४७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

1 रामचरित मानस । ३८ दुइ बरदान भूप सन थाती । माँगहु आजु जुड़ावहु छाती ॥ सुतहि राज रामहिँ बनबासू । देहु लेहु सब सवति हुलासू ॥३॥ अपने दोनों धरोहर वाले धारदान आज राजा से माँग कर छाती उएदी करो। पुत्र (भरत) को राज्य और रामचन्द्र को वनवास देकर सौत के सव अानन्द को ले लो ॥३॥ सवति के पुत्र को वनवास देकर अपना दुःख उसे दे दो और अपने पुत्र को राज्य देवर सवति के हृदय की प्रसन्नता तुम ले लो परिवृत अलंकार' है। भूपति राम-सपथ जब करई । तब माँगेहु जेहि बचन न टरई ॥ होइ अकाज आजु लिसि बीते । बचन मार प्रिय मानेहु जी ते wan अब राजा रामचन्द्र की सौगन्ध करें तब वरदान माँगना जिससे वात न टले । (प्राज की रात में यदि मेरे कहे अनुसार न हुआ और) रात बीत गई तो काम बिगड़ जायगा, मेरी बात को हदय से भलाई की मानना ॥४॥ वाच्या और व्यज्ञार्थ बराबर है कि भाज ही की रात भर समय है, सबेरे रामचन्द्र को राजतिलक हो जायगा, तब सारा काम चौपट होगा । मेरी बात हदय से भले की मान कर रात ही मे कार्य सुधारना 'तुल्यप्रधान गुणीभूत व्यस्त है। दो-बड़ कुधात करि पातकिनि, कहेसि कोप-गृह जाहु । काज सँवारेहु सजग सब, सहसा जनि पतियाहु ॥२२॥ पापिनी सेन्थरा ने बढ़ा कुदाँव रच कर कहा कि कोपभवन में जानो और सारा काम खूब सावधानी से सुधारना, भटपट (राजा का) विश्वास न कर लेना ॥२२॥ चौ०-कुबरिहि रानि प्रोन-प्रिय जानी । बार बार बड़ि बुद्धि बखानी । ताहि सम हित. न मार संसारा । बहे जात कंइ भइसि अधारा॥१॥ रानी ने कुवरी को प्राण के समान प्यारी समझ कर वारम्बार उसकी बुद्धि की बड़ाई की। कहा कि तेरे समान संसार में मेरी हितू कोई नहीं है, (मैं शोक सागर में) वही जाती थी उसके लिए तु सहारा हो गई है ॥१॥ केकयी का प्रस्तुत कथन तो यह है कि सवति के जाल से मेरा राज-पाट सब चला जाता था, वह सीधे न कह कर उसका प्रतिबिम्ब मात्र कहा कि तू बहनेवाली के लिए आधार हुई 'ललित अलंकार' है। नौँ बिधि पुरव मनोरथ काली । करउँ ताहि चखपूतरि आलो। 'बहु बिधि चेरिहि आदर देई । कोपभवन गवनी कैकेई ॥२॥ हे सखी ! यदि विधाता कल मनोरथ पूरा करेंगे तो तुझे आँख की पुतली बनाऊँगी । बहुत प्रकार चेरी को आदर देकर केकयी कोपभवन में गई ॥२॥ 'चखपूतर' शब्द से बहु सम्मान दान की . लक्षणा