पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४४९

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। रामचरित मानस । स्त्री-पुरुष के मन में इस बात की प्रबल उत्कण्ठा होना कि रामचन्द्रजी से हमारा: स्वामी-सेवक का नाता जन्मजन्मान्तर बना रहे। यह रतिभाव की अमिलाप दशा है। अस अभिलाष नगर सब काहू । कैकय-सुता हृदय अति दाहू ॥ को न कुसङ्गति पाइ नसाई । रहइ न नीच-मते धतुराई ॥४॥ नगर के सब लोगों की ऐसी अभिलाषा है; किन्तु केकयो के हदय में बड़ी जलन है। कुसल पाकर कौन नहीं नष्ट होता ! नीच की सलाह से चतुराई नहीं रह जाती ॥४॥ दो०-साँझ समय सानन्द नप, गयउ कैकई गेह । गवन निठुरता निकट किय, जनु धरि देह सनेह ॥२४॥ सन्ध्या समय राजा आनन्द के साथ केकयी के मन्दिरमें गये । ऐसा मालूम होता है मानो निठुरता के समीप स्नेह शरीर धारण कर के जाता है। ॥२४॥ राजा और स्नेह तथा केकयो और निठुरता परस्पर उपमेय उपमान है निष्ठुरताऔर स्नेह शरीरधारी नहीं होते केवल कविजी की कल्पना मात्र अनुक्त विषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार है। चौ-कोपभवन सुनि सकुचेउ राऊ । भय-बस अगहुँड़ परइ न पाऊ ॥ सुरपति बसइ बाँह-चल जाके । नरपति सकल रहहि रुख ताके ॥१॥ कोप-भवन का नाम सुन कर राजा सहम गये, डर के मारे उनका पाँच आगे को नहीं पड़ता है। जिनकी भुजोनों के बल पर इन्द्र बसते हैं और सम्पूर्ण राजा लोग जिनका रुख देखते रहते हैं ॥१॥ सो सुनि तिय रिस गयउ सुखाई। देखहु काम प्रताप बड़ाई ॥ सूल कुलिस असि अंगवलिहारे । ते तिनाथ सुमन-सर मारे ॥२॥ 'वे स्त्री का कुपित होना सुन कर सूख गये, काम के प्रताप की बड़ाई देखिये । जो त्रिशूल धजू और तलवार के सहनेवाले हैं, उन्हें कामदेव ने फूल के वाण मारकर विकल कर दिया ॥२॥ इन्द्र जिनके बाहुवल से बसते हैं और सब राजा जिनका रुख ताकते हैं, इस विशेष घात के समर्थन में सामान्य बात कहते हैं कि काम की महिमा देखो, वे स्त्री का क्रोध, सुनकर सहम गये पर इससे भी सन्तुष्ट न होकर फिर विशेष सिद्धान्त से समर्थन करना कि जो शूल, वन और तलवार की चोट सह लेते हैं उनको फूल के बाण मार कर कामदेव ने घायल कर दिया 'विकस्वर अलंकार' है। सभय नरेस प्रिया पहिँ गयऊ। देखि दसा दुख. दारुन भयंजः।। भूमि-सयन पट मोट पुराना । दिये डारि तन भूषन नाना ॥३॥ राजा करते हुए प्रियो केकयी के पास गये, उस की दशा देख कर उन्हें घोर दुःखमा। भूमि पर साई है और पुराना मोटा कपड़ा पहिने हुए शरीर के अनेक आभूषणों को निकाल कर फेंक दिया है ॥३॥