पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४५

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(२०) थात है कि कतिपय हिन्दी भाषा के उत्साही लज्जनों ने विशेष शुद्ध पाठ का संस्करण निकालना प्रारम्भ कर दिया है और उन प्रतियों का जनता में चादर भी बढ़ रहा है। रामचरितमानस का सम्मान सभी मत के लोग करते हैं। भारतवर्ष के सिवा यह अन्यान्य देशों में अनुवादित होकर श्रादर को शष्टि से देखा जा रहा है। इसमें धर्मनीति, समाजनीति, गजनीति सदा. चार और व्यवहारिक वाते सरल भाषा में इस ढंग से लिखी गयी है कि वे वैष्णव, शैव, शक्ति आदि किसी मतावलम्बी के सिद्धान्त के विरुद्ध नहीं जान पड़ती। भारत में तो पंजाय से विहार तक और विन्ध्याचल से हिमालय पर्यन्त रामायण घर घर विराजती हैं। असंख्यों मनुष्य केवल रामायण के पाठ से शानी और वैराग्यवान होते जा रहे हैं। इस ग्रन्थ के आदि में ४२ दोहा पर्यन्त गोस्वामीजीने बन्दना की है । इतनी हद और विज्ञक्षण वन्दना दूसरे किसी अन्य में किसी कवि की देखने में नहीं आई है। इसमें शिव-पार्वती, कागभुशुण्ड-गरुड़ और याज्ञवल्क्य-भारद्वाज सम्बाद में रामयश वर्णित है। नाम महिमा, मानस निरूपण, भगवान रामचन्द्रजी के जन्म लेने का कारण, ईश्वरावतार, बाललीला, धनुषयज्ञ, विवाहोत्सव, वनयात्रा, मायोध्यापुर-वासियों का वियोग, महाराजा दसरथ का पुत्र वियोग ले तन-त्याग, भरतजी का भायपाचार, पादुका लेकरनयोध्या को लौटना, मुनि-मिलन, वरदपण यध, सीताहरण, जटायु संहार, सुग्रीव की मित्रता, वाली निपात, हनूमानजी का समुद्र लाँघना, लकादहन, सीताजी की खोज लेकर लौटना, रामचन्द्रजी का धानरी सेना के सहित प्रस्थान, सेतु धन्ध, रावणादि राक्षसों का संहार, विभीषण को तिलक, अयोध्या को लौटना, राजतिलक और राजनीति का खूब मनोहारी विस्तार के साथ वर्णन है। साथ ही भक्ति, ज्ञान वैराग्य और सदाचार का बहुत अच्छी तरह निरूपण किया गया है। रामायण के विषय में यह कहावत प्रसिद्ध है कि गोस्वामीजी ने पहले संस्कृत में रामायण बनायी। उसी ब्राह्मण का रूप बनाकर शिवजी देखने के बहाने मांग लेगये। जब समय पर ब्राह्मण ने पुस्तक नहीं लौटाई तक गोसाँईजी को सन्देह हुआ। वे अनशन व्रत धारण कर विश्वनाथजी के मन्दिर में यह कह कर बैठे कि आप की नगरी में हमारा सर्वस्व लुट गया, यदि न लौटाइयेगा तो प्राण विसर्जन करूंगा। रात्रि में जब उन्हें निद्रा प्रायो, स्वप्न में शिवजी ने आदेश दिया कि तुम भाषा में रामायण बनानो और हम तुम्हारी सहायता करेंगे तथा लोक में उसका खूय प्रचार होगा। यह आदेश पाकर गोसाँईजी ने अयोध्या की ओर प्रस्थान किया, किन्तु रामायण सो जाने की चिन्ता मन से सर्वथा दूर नहीं हुई । माग में सन्ध्या हो जाने पर एक गिरिजामन्दिर में ठहर गये, खिन्नता से निद्रा नहीं आई। रात्रि में वृद्धा ब्राह्मणी के रूप में पार्वतीजी सामने आई और बोली-जो भादेश तुम्हें शिवजी ने दिया है खेद त्याग उसे विश्वास पूर्व के करो। उनका कहना कभी झूठा नहीं हो सकता और हम भी इस कार्य में तुम्हारी सहायता करेंगी। इतना कह कर वह मूर्ति तिरोहित हो गयी । गोस्वामी जी ने सोचा कि इस तरह उपदेश देनेवाली माता पार्वती के सिवा अन्य कोई स्त्री नहीं हो सकती। वे प्रसन्न मन से अयोध्यापुरी में आये और रामायण की रचना प्रारम्भ कर दी। कहते हैं इस का आभास रामचरितमानस के निम्न दोहे में उन्होंने सूचित किया है- सपनेहुँ साँचेहु मोहि पर , जौं हर-गौरि पसाउ ! तौ फुर. होउ जो-कहहुँ सब भापा भनिति प्रभाठ ॥ .