पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रामचरित-मानस। चौ०-जानेउँ मरम राउ हँसि कहई । तुम्हहिँ कोहाब परम प्रिय अहई। थाती राखि न माँगेहु काऊ। विसरिगयउ माहिभार सुभाऊ ॥१॥ राजा हंस कर बोले कि मैं तुम्हारी अप्रसनता का भेद समझ गया, तुमको कोहाना अत्यन्त प्यारा है । तुमने धरोहर रख कर कभी मांगा नहीं, मेरा भूलने का स्वभाव है, इस 'भूल गया ॥२॥ झूठेहु हमहि दोष जनि देहू । दुइ कै चारि माँगि मकु लेहू ॥ रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्रान जाहु बरु बचन न जाई ॥२॥ झूठ ही हमें दोष मत दो, दो के बदले बल्कि चार (वरदान) माग लो। रघुवंशियों की सदा से यह रीति चली आती है कि प्राण जाब पर बात न जाने पावे ॥२॥ सभा की प्रति में माँगि किन लेह पाठ है। नहिँ असत्य सम पातक-पुजा । गिरि सम होहिं कि कोटिक गुजा। सत्य-मूल सब सुकृत सुहाये । बेद पुरान विदित मनु गाये ॥३॥ भूठ के बरावर कोई पाप की राशि नहीं है, क्या करोड़ों घुघची पहाड़ के समान हो सकती हैं १ (कभी नहीं) । सब अच्छे पुगयों को जड़ सत्य ही है, वेद-पुराण में प्रसिद्ध है और मनुजी ने यही कहा है ॥३॥ असत्य के बराबर दूसरा बड़ा पाप नहीं यह उपमेय वाक्य है । करोड़ों धुंषत्री पर्वत के तुल्य नहीं हो सहती, यह उपमान वाक्य है। दोनों वाक्यों में बिना पाचक पद के बिन प्रतिविम्य भाष झलकना अर्थात् सब पाप धुंधची हैं और असत्य पर्वत है, के करोड़ों पाप मिलकर असत्य की बराबरी में नहीं तुल सकते 'रधान्त अलंकार' है। तेहि पर राम-सपथ करि आई। सुकृत-सनेह-अवधि रघुराई ॥ बात दृढाइ कुमति हँसि बोली । कुमत-कुबिहँग कुलह जनु खाली ॥४॥ तिस पर मैं रामचन्द्र को शपथ कर चुका हूँ जो रधुनाथ मेरे पुण्य और स्नेह की सीमा हैं। खूब बात पक्की करके तब वह दुष्ट बुद्धिवाली केकयी हस कर बोली । ऐसा मालूम होता है मानों कुमत रूपी बुरे पक्षी (बाज ) की कुलही खोल दी हो ॥४॥ केकयी का कुमत और बाज, उसकी बोली मुख से बाहर होना और कुलही, राजा का श्रानन्द और विहङ्ग परस्पर उपमेय उपमान हैं। शिकारी लोग बाज पक्षी की आँखो पर बना या चमड़े की टोपी लगाये रहते हैं, उस टोपी को कुतही कहते हैं। जप किसी पक्षी पर उसे छोड़ना चाहता है तब टोपी जोल कर बाज को उस ओर उड़ा देता है। बाज एक ही झपट्टे में दिखाये हुए पक्षी को पकड़ लाता है। ऐसा शिकारी करते ही हैं। यह कविषया घस्तूमेक्षा अलंकार' है।