पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४५४

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द्विताय सेोपान, अयोध्याकाण्ड । ३९५ दो-भूप मनोरथ सुभग बन, सुख सुधिहङ्ग समाज । लिल्लिनि जिमि छाड़न चहति, बचन भयङ्कर बाज ॥२८॥ राजा का मनोरथ सुन्दर धन है और सुख मनोहर पक्षियों का समुपाय है । केकयी मिहिनी जैसी है, वह वचन रूपी भयङ्कर बाज छोड़ना चाहती है ॥२८॥ पो०-सुनहु प्रान-प्रिय भावत जी का । देहु एक बर भरतहि टीका । माँगउँ दूसर बर कर जारी । पुरवहु नाथ मनोरथ मारी ॥१॥ हे प्राणप्यारे । सुनिए, मेरे मन में सुहानेवाला प्रथम पर दीजिए कि राजतिलक भरत को हो । हे नाथ ! दूसरा पर मैं हाथ जोड़ कर माँगती हूँ मेरी इच्छा पूरी कीजिये ॥१॥ तापस-ोष -बिसेष उदासी । चौदह बरिस राम 'बन-बासी ॥ सुनि मृदु बचन भूप हिय साकू । ससि-कर छुअत विकल जिमि कोकू ॥२॥ तपस्वी के वेश में विशेष कर उदासीन भाव से चौदह वर्ष तक रामचन्द्र पन में निवास करें। इन कोमल वचने को सुन कर राजा का हृदय ऐसा शोकान्वित पुश्रा, जैले चन्द्रमा की फिरणों के छू जाने से पकवा पक्षी विकल होता है ॥२॥ प्रिय पुत्र का वियोग सुन कर राजा के हृदय में जो दुःन हुआ, वह 'शोक स्थायीभाव' है। इस समय का दु:अल्प है, क्योंकि अभी राजा समझते हैं कि कदाचित रानी ने हसी की हो। पूरा निश्चय होने पर यह शोक पूर्णावस्था को पहुँचेगा। चौदह वर्ष धन-पास का घर माँगने में लक्षणामूलक मूद ध्यङ्ग है। (१) रावण की आयु चौदह वर्ष याकी है, इसलिए भावी की प्रेरणा से चौदह वर्ष का वर माँगा । (२) चौदह दिन से तिलक की तैयारी हो, रही है पर केकयी ने आज सुना, इसले चौदह दिन के बदले चौदह वर्ष का वन-धाल माँगा। इसके सिवा और भी गदाशय कहे जाते हैं। किन्तु उनमें विशेष चमत्कार नहीं है। गयउ सहमि नहिं कछु कहि आवा । जनु सचान बन झपटेउ लावा । बिबरन भयउ निपट नरपालू । 'दामिनि हनेउ मनहुँ तरु तालू ॥३॥ राजा सिकुड़ गये उनसे कुछ कहते नहीं बनता है, ऐसा मालूम होता है मानों बटेर भुण्ड पर बाज झपटा हो ! नरनाथ दशरथजी पिलकुल दुति-हीन हो गये, ऐसा जान पड़ता है मानों ताड़ के पेड़ को बिजली ने मारा हो ॥३॥ माथे हाथ मुंदि दोउ लोचन । तनु धरि सोच लाग जनु सौचन । मार मनोरथ सुरतरु-फूला । फरत करिनि जिमि हतेउ समूला ॥४॥ राजा ने माथे पर हाथ रख कर दोनों माँखों को ढंक लिया, ऐसा मालूम होता है मानों सेच ही शरीर धारण कर के सोचता हो। वे मन में झहते हैं कि हाव-मेरा मनोरथ रूपी कल्पवृक्ष फूला; परन्तु फलते समय जैसे हथिनी ने जड़ से उखाड़ कर नष्ट कर डाला in