पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४५६

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । २९७ शिवि-राजा बड़े धर्मात्मा थे। एक बार वे यज्ञशाला में बैठे यश करते थे। उनकी परी- क्षा लेने के लिए इन्द्र वाज बने और अग्नि को कबूतर बनाया। कृत्रिम बाज कबूतर को रगे- दता हुआ यशाला में पहुंचा। वह स्तर राजा की गोद में जा छिपा और भाज उसे पाने की प्रार्थना करने लगा। राजा ने शरणागत पक्षी को लौटाना स्वीकार नहीं किया । बाज ने कबूतर के बदले में राजा के शरीर का मांस माँगा। राजा इस पर राजी हो गये और शरीर कार काट कर उसे मांस दिया। जय कई बार के देने पर कबूतर के बरावर मांस नहीं तुला, तव स्वपम् तराजू पर बैठ गये और याज को तृप्त किया। दधीचि-वृत्रासुर से लड़ते लड़ते इन्द्र थक गये पर वह मरा नहीं, तंब ब्रह्मा के कहने से इन्द्र ने दधीचि के पास जा कर उनकी हड्डी मांगी। उन्होंने प्रसशता से अपना शरीर गौ से चटवा कर हड्डी दे दी और प्राण त्याग दिया। पलि-राजा बड़े दांनी थे वे महायज्ञ करते थे। इन्द्र की भलाई के लिए विष्णु भगवान् वामन रूप होकर गये और वलि ले तीन परग पृथ्वी माँगी। गुरु के मना करने पर बलि ने नहीं ध्यान दिया। प्रसन्नता से सङ्कल्प कर दिया। जब त्रिविक्रम रूप से भगवान् ने दो ही परग में तीनों लोक नाप लिया, तब तीसरे परंग के लिए बलि ने पीठ नपा कर अपनी प्रतिज्ञा पूरी की। दो०- धरम-धुरन्धर धीर धरि, नयन उघारे राय। लिर धुनि लीन्हि उसास असि, मारेसि मोहि कुठोय ॥३०॥ धर्म की धुरा को धारण करनेवाले राजा दशरथजी ने धीरज धर कर ने खोला और सिर पीट कर लम्बी साँस ली, मन में कहा कि इसने मुझे कुजगह में तलवार भारी ॥ ३० ॥ चौ०-आगे दीखि जरत रिस मारी । मनहुँ रोष तरवारि उघारी॥ मूठि कुबुद्धि धार निठुराई । धरी कूबरी सान बनाई ॥१॥ राजा ने सामने देखा कि भारी क्रोध से जलती हुई केकयी बैठी है, वह ऐसी मालूम होती है मानों क्रोध रूपी तलवार भ्यान से बाहर निकली हो। जिस (तलवार) की कुबुद्धि मुठिया है, निष्ठुरता धार है और मन्थरा रूपी सिकलीगर ने बना कर सान धर दी है ॥ १ ॥ क्रोध वलवार नहीं है और तलवार का ध्यान से निकलना सिद्ध आधार है । इस अहेतु में हेतु की कल्पना करना 'सिद्धविषया हेतृत्प्रेक्षा अलंकार है। लखी महीप कराल कठोरा । सत्य कि जीवन लेइहि मास ॥ बोलेउ राउ कठिन करि छाती । बानी सबिनय तासु सोहाती ॥२॥ उस भीषण कठिन तलवार को देख कर राजा ने समझ लिया कि यह या तो मेरा सत्य लेगी या कि जीवन अर्थात् अब दो में से एक को इसने लिया। राजा कड़ी छाती कर के नम्रता के साथ उसे सुहानेवाली वाणी बोले ॥२॥ या तो सत्य लेगी या कि मोण लेगी 'विकल्प अलंकार' है।