पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४५७

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३ रामचरित मानस । प्रिया बचन कस कहसि कुलाँती। झीर प्रतीति प्रीति करि हाँती। मेरे भरत राम दुइ आँखी । सत्य कहउँ करि सङ्कर साखी ॥३॥ हे प्रिये ! तू मेरा भय, विश्वास और प्रीति नष्ट कर के बुरी तरह पाते काहे को कहती है ? मैं शिवजी को लाक्षी देकर सत्य कहता हूँ कि भरत और रामचन्द्र दोनों मेरी माँसा हैं ॥३॥ अबसि ठूत मैं पठड्व प्राता । अइहहिं बेगि सुनत दोउ भाता। सुदिन साधि सब साज सजाई। देउँ भरत कहें राज बजाई rea अवश्य में प्रातःकाल दूत भेजूंगा और दोनों भाई सुनते ही तुरन्त चले आयेंगे। अच्छी साहत शोध कर सब सामान सजवा डसा बजा कर (प्रसन्नता पूर्वक) भरत को राजपद दूंगा॥४॥ दो०-लोभ न रामहि राज कर, बहुत भरत पर घोति ।। मैं बड़ छोट बिचारि जिय, करत रहेउँ हप-नीति ॥३१॥ रामचन्द्र को राज्य का लोभ नहीं है, उनकी भरत पर बड़ी प्रीति है। मैं बड़े छोटे का मन में विचार कर के राजनीति करता था ॥ ३१॥ रामचन्द्र का भरत पर बड़ा प्रेम है, वे भरत का राज-तिलक सुन कर प्रसन होंगे। यह वाच्यविशेष व्यङ्ग है। केकयों की प्रसन्नता के लिए राजा का यह कहना कि भारत के राज्या- भिषेक होने में रामचन्द्र याधान डालेंगे, वे सुन कर प्रसन्न होंगे। यह भाष चपलता और आवेग समारी है कि किसी प्रकार रामचन्द्र की वनयात्रा वर्जित हो। चौध-राम सपथ सत कहउँ सुभाऊ । राम-मातु कछु कहेउ न काऊ । मैं सब कीन्ह तोहि बिनु पूछे। तेहि ते परेउ मनोरथ छूछे ॥१५. रामचन्द्र की सौगन्द करके मैं स्वभाव से सच. कहता हूँ कि रामचन्द्र की माता ने कभी कुछ नहीं कहा । हाँ-मैंने बिना तुम से पूछे सब किया, इसी से मनोरथ जाली पड़ गया.॥१॥ रिस परिहरु अब मङ्गल साजू । कछु दिन गये भरत जुबराजू। एकहि बात माहि दुख लागा । बर दूसर असमन्जस माँगा ५२॥ क्रोध छोड़ कर अव मङ्गल सजो, कुछ दिन बीतने पर भरत युपराज होंगे। एक ही बात से मुझे दुःख लगा है जो दूसरा वर एलस का तुमने माँगा है ॥२॥ अजहूँ हृदय जरत तेहि आँचा । रिस परिहास कि साँचेहु साँचा ॥ कहु तजि रोष राम अपराधू । सब कोउ कहइ राम सुठि साधू ॥३॥ भव भी मेरा य उलकी आँच से जलता है, क्या तुमने क्रोध से हैसी की है या कि सचमुच सत्य है ? क्रोध छोड़ कर रामचन्द्र का अपराध कहो, सब कोई कहते हैं कि रामबन्द निरे साधु (सज्जन प्रकृति के) हैं ।।३।।