पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४५८

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। . द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । तुहूँ सराहसि करसि सनेहू । अब सुनि मोहि अयउ सन्देहू॥ जासु सुभाउ अरिहि अनुकूला । सो किमि करिहि मातु प्रतिकूला ॥४॥ तू भी सराहती और स्नेह करती थी, अब यह सुन कर मुझे सन्देह हुआ है कि जिनका स्वभाष शन, के भी अनुकूल रहता है, वे माता के विरुद्ध कार्य कैसे करेंगे ? ॥४॥ केकयी के क्रोध को शान्त करने के लिए राजा के मन में अच्छी युक्तियों की उपज 'मति लशारीभाव' है। दो-मिया हास रिस परिहरहि, माँगु बिचारि बिबेक । जेहि देखउँ अब नयन भरि, भरत राज-अभिषेक ॥३२॥ हे प्रिये ! यह क्रोध की हँसी त्याग दो और शान से विचार कर मांगो, जिसमें प्रय आँख भर मैं भरत का राज्याभिषेक देखू ॥ ३२॥ चौ०-जिर मीन बरु बारिबिहोना । मनिबिनुफनिकजिअइ दुख दीना॥ कहउँ सुभाउ न छलमनमाहौ। जीवन मोर राम बिनु नाहीं॥१॥ मछली बोहे बिना जल के जीवित रहे और साँप बिना मणि के दुखी दीन होफर जीता रह जाय ! मैं मन में कपट लेकर नहीं स्वभाव ही ले कहता हूँ कि मेरा जीना बिना रामचन्द्र कम होगा ॥१॥ समुशि देखु जिय प्रिया प्रबीना । जीवन राम-दरस आधीना ॥ ॥ सुनि मृदु बचन कुमति अति जरई। मनहुँ अनल आहुति घृत्त परई॥६॥ हे चतुर प्रिये ! मन में समझ कर देख, मेरा जीवन रामचन्द्र के दर्शन के अधीन है। राजा ती कोमल वाणी सुन कर वह कुबुद्धी अत्यन्त जल रही है, ऐला मालूम होता है मानों भाग में घी की आहुति पड़ती हो ॥२॥ राजा का कोमल वचन कारण और केकयी का क्रोध बदनो कार्य हैं। कारण का रूप और तथा कार्य का और 'द्वितीय विषम अलंकार' है। कहइ करहु किन कोटि उपाया। इहाँ न लागिहि राउरि माया ॥ देहु कि लेहु अजस करि नाहौँ । माहि न बहुत प्रपञ् साहाहीं ॥३॥ फहती है कि करोड़ों उपाय क्यों न करो, यहाँ आप को छलबाजी न लगेगी । मेरा माँगा हुधा दो या कि नहीं करके अपयश लो, मुझे बहुत प्रपञ्च अच्छा नहीं लगता ॥३॥ या तो वर देकर अपना वचन सत्य करो या नहीं करके कलङ्की और असत्यवादी बनो 'विकल्प अलंकार' है। राम-साधु ' तुम्ह साधु सयाने। राम-मातु भलि सब पहिचाने ॥ जस कौसिला मार भल ताका । तस फल उन्हहि देउँ करिसाकाlen रामचन्द्र साधु हैं, तुम चतुर साधु हो और राम की माता अच्छी हैं, मैं सब को पहचा- नती हूँ । कौशल्या ने मेरी जैसी भलाई देखी है, मैं वैसा ही फल उन्हें निशान कर के दूंगी 1