पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४५९

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रामचरित मानस 800 राम साधु, तुम सयाने सोधु, कौशल्या भली हैं। वार पार पद और अर्थ को भावृत्ति से 'पदार्थावृत्ति दीपक अलंकार' है। साधु कहने पर भी व्यग्नोक्ति से निन्दा प्रकट होना 'व्याजनिन्दा अलंकार है। दौ-हात पात सुनि बेष धरि, जौँ न राम बन जाहिँ । मोर मरन राउर अजस, नृप समुझिय मन माहि ॥३३॥ सबेरा होते ही मुनिवेश धारण करके यदि रामचन्द्र वन को न जाँयगे, ते। हे राजन् ! मन में निश्चय समझिये कि मेरी मृत्यु और आप को फल होगा ॥३३॥ चौ-अस कहि कुटिल भई उठि ठाढ़ी। मानहुँ रोष-तरङ्गिनि बाढ़ी। पाप-पहार प्रगट भइ साई । परी क्रोध-जल जाइ न जाई॥१॥ ऐसा कह कर वह दुष्टा उठ कर खड़ी हो गई, ऐसा मालूम होता है मानो क्रोध की नदी बढ़ी हो। वह नदी पाप रूपी पहाड़ ले, प्रकट हुई और क्रोध रूपी जल से भरी है जो देखी नहीं जाती (बड़ी भयावनी) है ॥१॥ दोउ घर कूल कठिन हठ धारा । भँवर कूबरी बचन-प्रचारा ॥ ढोहत सूप-रूपान्तरु मूला । चलो विपति-बारिधि अनुकूला ॥२॥ दोनों पर किनारे हैं और कठिन हठ धारा है, कूवरी के उत्तेजक वचन भँवर हैं। राजा का रूप वृक्ष है, उसे जड़ से ढहाते हुए विपत्ति रूपी समुद्र की ओर चली है ॥ २॥ . लखी नरेस बात सच साँची । तिय मिस मीच सीस पर नाँची । गहि पद विनय कोन्हि बैठारी । जनि दिनकर-कुल होसि कुठारी ॥३॥ राजा ने देखा कि बात सव सच्ची है, स्त्री के बहाने मेरी मौत ही सिर पर नाच रही है। पाँव पकड़ कर गिनती करके बैठाया और कहा-सूर्यकुल रूपी वृक्ष के लिए ₹गारी मत हो । राजा का यह कहना कि स्त्री के बहाने मेरी मौत सिर पर नाचती है 'कैतवापर ति अलंकार' है। राजपुर की प्रति में 'लषी नरेस बात पुरि सांची' पाठ है। उसका अर्थ होगा कि- "राजा ने देखा कि मातसचमुच ठीक है"। परन्तु गुटका और सभा की प्रति में उपर्युक्त पाठ है, जिससे यह सम्भव जान पड़ता है कि काशी की प्रति में गोसांईजी ने इस पाठ का संशोधन किया है। क्योंकि दो पर्यायवाची शब्दों से पुनरुक्ति दोष पाता है।' माँगु माथ अबहीं देउँ तोही । राम-बिरह जनि मारसि माही। राखु राम कह जेहि तेहि भाँती । नाहि त जरिहि जनम भरि छाती ॥४॥ मेरा मस्तक माँग तो अभी मैं तुझे हे दूं, पर रामचन्द्र के वियोग से मुझे मत मार। जिस किसी प्रकार से रामचन्द्र को रख ले, नहीं तो जन्म भर छाती जलेगी ॥४॥ 1