पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४६०

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । १०१ दो-देखी ब्याधि असाधि न्य, परेउ धरनि धुनि माथ । कहत घरम आरत बचन, राम राम रघुनाथ ॥३४॥ राजा ने खा कि रोग असाध्य है (यह छूट नहीं सकता, तब) अत्यन्त दीन वाणी से हो राम, हा राम, हाय रघुनाथ कहते हुए सिर पीट कर धरती पर गिर पड़े। ३४॥ राजा का मन रामचन्द्रजी के विरह की चिन्ता से विकल हो गया 'मोह सशारी- भाषा है। चौ--ब्याकुल राउ सिथिल सब गाता। करिनि कलपतरु मनहुँ निपाता। कंठ सूख मुख आव न बानी । जनु पाठीन दोन बिनु पानी ॥१॥ व्याकुलता से राजा का लब अङ्ग ढीला पड़ गया, ऐसा मालूम होता है मानो हथिनी ने कल्पवृक्ष का नाश कर दिया हो । उनका गला सूख गया मुंह से बात नहीं निकलती है, ऐसे जान पड़ते हैं मानों बिना पानी के पहिना मछली दुखी हो ॥१॥ पुनि कह कटु कठोर कैकेई । मनहुँ घाय महँ माहुर देई । जौँ अन्तहु अस करतब रहेऊ । माँगु साँगु तुमह केहि बल कहेज ॥२॥ फिर ककयो कठिन कड़वी बातें कहने लगो, ऐसा मालूम होता है मानों घाव में विष दे रही हो । यदि तुम्हारे हृदय में ऐसा ही करतब था तो मांगो माँगो किस बल से तुमने कहा है ॥२॥ राजा और घाव, केकयी की कड़ी बात और ज़हर पररूपर उपमेय उपमान हैं। घाव में विष भरने से भयङ्कर कष्ट होता ही है। यह 'उक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार' है । अहङ्कार पूर्वक पति का अनादर करना विश्वाक हाव' है। दुइ कि होइ एक समय भुओला । हँसब ठठाइ फुलाउन गाला ॥ दानि कहाँउब अरु कृपनाई। हाई कि षेम-कुसल रौताई ॥३॥ हे राजा ! क्या एक साथ उठा कर हँसना और गास फुलाना दोनों हो सकता है ? दानी कहलाना और कजूसी भी करना ? क्या शूरता में कुशल-दोम की चाह होती है ? ॥३॥ काकु से वाच्यसिद्धथा गुणीभूत व्या है कि तुमने सति के मत से मुझे छिपा कर रामचन्द्र को राजतिलक करना चाहा था। मुझ को और कौशल्या को बराबर प्रसन्न रखना चाहते हो तो यह न होगा। सत्यवादी की डींग हाँक कर अव किस मुल से रामचन्द्र को घर रखने के लिए कहते हो १ बड़े शोक की बात है। छाहु बचन कि धीरज धरहू । जनि अबलो मिजि करुना करहू ॥ तनु तिय तनय धाम धन धरनी । सत्यसन्ध कह न सम बरनी ॥४॥ या तो बात छोड़ दो या धीरज घरी, स्त्रियों की तरह करुणा मत करो। शरीर, स्त्री, पुत्र, धर, सम्पत्ति और धरती सत्ववादी पुरुषों के लिए तिनके के समान कही हैं ॥ ४ ॥ या तो वचन छोड़ो या धैर्य धारण करो विकल्प प्रलंकार है। ५१