पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४६२

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । भन्त में पछतायगी जब इससे रोग न छुटेगा और हत्या कपी विधवापन लगेगा" । भरत को राज-पद देने की इच्छा और नहरुमा रोग, रामचन्द्र को वन भेजना और गोवध, भरत का राज त्यागना और रोग का अच्छा न होना परस्पर उपमेय उपमान हैं। दो०--परेउ रोउ कहि कोटि विधि, काहे करसि निदान । कपट सयानि न कहति कछु, जागति मनहुँ मसान ॥३६॥ राजा ने करोड़ों तरह से समझा कर कहा कि, तू किस लिए अन्त (सर्वनाश ) करती है, (पर उसे मानते न देख कर व्याकुल हो) धरती पर गिर पड़े। कपट में चतुर केकयी कुछ कहती नहीं है, ऐसा मालूम होता है मानो मसान जगाती हो॥३६॥ मसान जगाना सिद्ध आधार है, क्योंकि लोग मौन हो कर मसान जगाते ही हैं । परन्तु केकयी मसान के लिए चुप नहीं है बरन् राजा की बातें उसे सुहाती नहीं हैं इससे वह बोलना नहीं चाहती है। इस अहेतु को हेतु ठहराना 'सिद्ध विषया हेतु त्प्रेक्षा अलंकार है। चौ०-राम राम रट निकल भुआलू । जनु बिनु पङ्ख विहङ्ग बिहालू ॥ हृदय मनाव भोर जनि होई । रामहि जाइ कहइ जनि कोई ॥१॥ राम राम रटते हुए राजा व्याकुल हो गये, वे ऐसे मालूम होते हैं मानों बिना पक्ष के पखेरु वेहाल होदय में मनाते हैं कि सबेरान हो और यह समाचार कोई जा कर रामचन्द्र से न कह दे॥१॥ रामचन्द्रजी के वियोग के भय से अनहोनी मनौती करना कि सवेरा ही न हो पावेग और जड़ता संञ्चारीभाव है। उदय करहु जनि रबि रघुकुल-गुर । अवध बिलोकि सूल होइहि उर ॥ कैकइ-कठिनाई । उभय अवधि विधि रची बनाई॥२॥ हे रघुकुल के श्रेष्ठ सूर्य भगवान् ! श्राप अपना उदय न करें, अयोध्या को देख कर हृदय में शूल होगा। राजा की प्रीति और केकयी की कठोरता दोनों को ब्रह्मा ने हद तक बनाया। अर्थात् राजा के समान कोई प्रीतिवान नहीं और केकयी के बराबर कोई कठोर नहीं है ॥२॥ बिलपत नृपहि भयउ मिनुसारा । बीना-बेनु-सङ्ख धुनि द्वारा ॥ पढ़हि भाट गुन गावहिं गायक । सुनत नृपहि जनु लागहिँ सायक॥३॥ इस तरह विलाप करते हुए राजा को सबेरा हो गया, द्वार पर वीणा, बाँसुरी और शव आदिबाजों के शब्द होने लगे। भार यशंवखानते और गवैया गान करते हैं, सुन कर राजा को वे ऐले मालूम होते हैं मानों बाण लगते हो ॥३॥ घाण का लगना सिद्ध आधार है। पर बाजे की ध्वनि और गान के शब्द वाण नहीं है। इस अहेतु को हेतु ठहराना 'सिद्ध विषया हेतूत्प्रेक्षा अलंकार' है। भूप-प्रीति