पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४६३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

7 शामचरित मानस । gog मङ्गल सकल सोहाहिँ न कैसे । सहगामिनिहि बिभूषन जैसे । तेहि निसि नींद परी नहि काहू । राम दस लालसा उछाहू ॥४॥ राजा दशरथजी को वे सम्पूर्ण महल कैसे नहीं सुहाते हैं, जैसे मृतक पति के साथ सती होनेवाली स्त्री को आभूपण अप्रिय लगता है। रामचन्द्रजी के दर्शन को लालसा और उत्साह से उस रात्रि में किसी को नीद नहीं आई ॥४॥ एक टीकाकार ने 'सहगामिनी' शब्द का अर्थ-सम्भोग करनेवाली स्वीकिया है। सम्भोग का प्रकार ही मूल कारण है, फिर स्त्री को गहने क्यों अप्रिय होने लगे! दो०-द्वार और सेवक सचिव, कहहिं उदित रबि देखि । जागेउ अजहुँ न अवधपति, कारन कवन बिसेखि ॥३७॥ राजद्वार पर मन्त्रियों और खेवकों की भीड़ हुई, वे सूर्योदय देख कर कहते हैं कि कौन सा विशेष कारण है जो अयोध्या नरेश अब तक नहीं जगे ॥ ३७॥ राजा दशरथजी स्वभावतः रात्रि के चतुर्थ प्रहर में उठ जाते थे, आज महोत्सव के दिन सूर्योदय होने पर नहीं उठे ! यह सोच कर लोगों के बिच में विस्मय उत्पन्न होना आश्चर्य स्थायीभाव' है। चौ पछिले पहर भूप नित्त जागा । आजु हमहि बड़ अचरज लागा॥ जाह सुमन्त्र जगावहु जाई । कोजिय काज रजायसु पाई ॥१॥ राजा नित्य ही पिछले पहर (बाम मुह) में जगते थे, आज हम लोगों को बड़ा आश्चर्य लगता है कि क्यों नहीं जंगे हैं । नुमन्त्र जी ! आप जा फर जगाचे जिसमें महाराज की पाशा पा कर हम सब काम करें ॥२॥ गये राउर माहीं। देखि अयोवन जात डेराहीं ॥ धाइ खाइ जनु जाइन हेरा । सोनहुँ बिपति बिषाद बसेरा ॥२॥ तथ सुमन्त्र राजमहल में गये, उन्हें मारा महल भयौवना दिखाई देता है इससे जाने से डरते हैं। वह (महल) देखा नहीं जाता, ऐसा मालूम होता है मानों दौड़ कर खा लेगा और इस तरह जान पड़ता है मानों विपत्ति-विषाद ने डेरा किया हो ॥२॥ बुरे दिन आने पर अथवा भीषण कुचाल से घर का भयङ्कर होना सिद्ध प्राधार है, परन्तु मकान चेतन जीव नहीं जो दौड़ कर खा लेगा। इस अहेतु को हेतु उहरोना सिम: विषपा हेतूत्प्रेक्षा' है। सभा की प्रति में गये सुमन्त्र तब राउर पाही पाठ है । जिसका अर्थ होगा-"सुमन्न राजा के पास गये परन्तु सुमन्त्र का राजा के पास पहुंचना नीचे की चौपाई में कहा गया है और वह कथन तो-जब महल में प्रवेश कर जाने लगे; किन्तु राजा के पास पहुँचे नहीं, तब का है। यहाँ "राउर" शब्द महल का बोधक है, जैसे-"रार नगर कोलाहल होई, सुनि नूप-राडर सार इत्यादि। इन स्थानों में 'राजमहस' के सिवा श्रापका अर्थ नहीं व्यजित होता है। आपका अर्थ उन स्थानों में प्रकट करता है, जैसे- , सुमन्त्र तब