पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४६९

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११० रामचरित मानस । चौ०-अवनिप अकनि रामपग धारे। धरि धीरज तब नयन उघारे।। सचिव समारि राउ बैठारे । चरन परत नूप राम निहारे hu तब राजा ने रामचन्द्रजी का पदार्पण सुन कर धीरज धारण कर के नेत्र खोला । मन्त्री ने सँभाल कर राजा को बैठाया और राजा ने रामचन्द्रजी को पाँव पड़ते देखा ॥१॥ लिये सनेह निकल उर लाई । गङ् भनि मनहुँ फनिक फिरि पाई। रामहि चितइ रहेउ नर नाहू । चला बिलोचन वारि प्रधाहू ॥२॥ स्नेह से व्याकुल हो कर हृदय में लगा लिया, ऐसा मालूम होता है मानों खोई हुई मणि को सर्प ने फिर से पाई हो । राजा रामचन्द्रजी को देखते रहे, उनकी आँखो से आँसुओं की धारा बह चली॥२॥ सोक बिवस कछु कहइ न पारा । हृदय लगावत बारहिँ बारा । विधिहि अनाव राउ मन माहीं । जेहि रघुनाथ न. कानन जाहीं ॥३॥ शोक के अधीन हो कर कुछ कह नहीं सकते, चार चार हृदय से लगाते हैं । राजा मन में विधाता को मनाते हैं, जिससे रघुनाथजी वन को न जाँय ॥ ३॥ वियोग के भय से चोल न सकना 'स्वरमा सात्विक अनुभाव' है। सुमिरि महेसहि कहाइ बहोरी। बिनती सुनहु सदासिव मारी। आसुतोष तुम्ह अनढर-दानी । आरति हरहु दीन जन जानो ॥४॥ . शिवजी का स्मरण और निहोरा कर के कहते हैं कि हे सदाशिव ! मेरी विनती को सुनिये ! आप तुरन्त प्रसन्न होनेवाले और प्रौदर (जो शत्रु-मित्र पर वरावर दयालु हो) दानी हैं, मुझे अपना दीन लेवक समझ कर मेरे दुःस को दूर कीजिये ॥४॥ दो-तुम्ह मेरक सब के हृदय, सो मति रामहि देहु । बचन मार तजि रहहिँ घर, परिहरि सील सनेहु ॥४४॥ . आप सब के हृदय के प्रेरक हैं, रामचन्द्र को ऐसी बुद्धि दीजिये कि वे मेरा शील और स्नेह छोड़ कर तथा वचन त्याग कर घर में रहे (वन में न जॉय) ४|| चौ० अजस होउ जग सुजस नसाऊ। नरक परउँ बरु सुरपुर जाऊ॥ सब दुखदुसह सहावहु माहीं । लोचन ओट राम जनि हाहीं ॥१॥ संसार में मुझे अयश हो और फीति नष्ट हो जाय, नरक में पहूँ चाहे स्वर्ग चला जाय अर्थात् देवलोक में निवास न हो । सब असहनीय दुःख मुझे सहाइये, परन्तु रामचन्द्र मेरो आँखो से भाड़ न हो ॥१॥