पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४७०

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. . द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ४११ अस मन गुनइ राउ नहिँ बोली । पीपर पात सरिस मन डोला ॥

रघुपति पितहि प्रेम-बस जानी। पुनि कछु कहिहि मातु अनुमाली ॥२॥ ऐसा मन में विचारते हुए राजा घोलते नहीं हैं, उनका मन पीपल के पत्ते के समान डोल रहा है। रघुनाथजी ने पिता को प्रेम के वश में जाना और श्रमान किया कि माता फिर कुछ कहेगी (तब राजा दुखी होंगे) ॥२॥ मन-उपमेय, पीपरपात-उपमान, सरिस-वाचक और डोलना धर्म, 'पूर्णोपमा अलंकार' है। इससे किसी एक बात पर निश्चय न जमने फी ध्वनि व्यजित होती है। देस काल अवसर अनुसारी । बाले बचन बिनीत बिचारी ॥ तात कहउँ कछु करउँ ढिठाई। अनुचित छमन जानि लसिकाई ॥३॥ देश, काल और मौके के अनुसार नम्रता पूर्वक विचार कर बचन बोले। हे पिताजी! मैं कुछ दिठाई करके कहता हूँ, लसकपन समझ कर अनुचित क्षमा कीजियेगा ॥३॥ अति लघु बात लागि दुख पावा । काहु न मोहि कहि प्रथम जनावा ॥ देखि गोसाँइहि पूछेउ माता । सुनि प्रसङ्ग भये तीतल गाता ॥४॥ अत्यन्त तुच्छ बात के लिए आपने इतना दुःख पाया! किसी ने मुझ को पहले ही काह फर प्रकट नहीं किया। आप की व्याकुलता देख कर मैं ने माता ले पूछा और वृत्तान्त सुन कर शरीर ठण्डा हुश्रा पक्षा वाच्यार्थ और व्यझार्थ बराबर होने से तुल्यप्रधान गुणीभूत व्यङ्ग है कि इसमें कौन सी कठिनता है जिसके लिये आप अत्यन्त दुःखी हो रहे हैं। दो०-मङ्गल समय सनेह-बल, सोच परिहरिय तात । आयसु देइय हरषि हिय, कहि पुलके प्रभु गात ॥४॥ हे पिताजी ! महल के समय स्नेह-वश सोच छोड़ दीजिये । प्रसन्न मन से (मुझे बन जाने के लिये) अक्षिा दीजिये, यह कह फर प्रभु रामचन्द्रजी शरीर से पुलकित हुए ॥१५॥ चौ०-धन्य जनम जगतीतल तासू । पितहि प्रमोद चरित सुनि जासू ॥ चारि पदारथ करतल ता के । प्रिय पितु-भातु प्रान सम जा ॥१॥ उन्होंने कहा-पृथ्वीतल पर उसका जन्म धन्य है जिसके चरित्र को सुन कर पिता को आनन्द हो। चारों पदार्थ उसकी मुट्ठी में रहते हैं जिसको माता-पिता प्राण के समान प्यार होते हैं ॥१॥ आयसु पालि जनम-फल पाई। अइहउँ बेगिहि, होउ रजाई । बिदा मातु सन आवउँ माँगी। चलिहउ बनहिँ बहुरि पग लागी ॥२ श्राशा पालन करके जन्म का फल पाकर तुरन्त ही लौट भाऊगा, अाशा हानी चाहिए। माता से विदा माँग आऊँ, फिर चरणों में लग कर वन को जाऊँगा ॥२४॥ -