पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

1 ११२ रामचरितमानस 'अस कहि राम गवन तब कीन्हा । भूप सेोक-नस उत्तर न दीन्हा॥ नगर व्यापि गइ बात सुतीछी । छुअत चढ़ी जनु, सब तन बीछो॥३॥ ऐसा कह कर तब रामचन्द्रजी ने वहाँ से गमन किया और राजा ने शोक के वश उत्तर नहीं दिया। यह अत्यन्त तीखी बात नगर में फैल गई, ऐसा जान पड़ता है मानो डक के छू जाते ही सारे शरीर में बीजू का विष चढ़ गया हो ॥३॥ विच्छू का डंक लगते ही उसका ज़हर शरीर भर में फैल ही जाता है, यह 'उक . विषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार' है। सुनि मये निकल सकल नर नारी। बेलि बिपट जिमि देखि दवारी । जो जहँ सुनइ धुनइ सिर लाई। बड़ बिषाद नहिँ धीरज हाई ॥४॥ यह समाचार सुन कर सारे स्त्री-पुरुष ऐसे व्याकुल हुए जैसे लता और वृक्ष दावानल को देख कर मुरझा जाते हैं। जो जहाँ सुनता है वह वहीं लिर पीटने लगता है, बड़ा विषाद पढ़ा किसी को धीरज नहीं होता है ॥ दो०--सुख सुखाहिँ लोचन सवहि, सेक न हृदय समाइ। मनहुँ करुन-रस-कटकई, उत्तरी अवध बजाइ ॥४६॥ सबके मुखं सूख गये और आँखों से आँसू बहते हैं, शोक हृदय में समाता नहीं (उमड़ा पड़ता है। ऐसा मालूम होता है मानो डङ्का वजा कर करुणा-रस की सेना अयोध्या में उतरी हो ॥५ करुण-रस का ससैन्य उतरना कवि की कल्पना मात्र है, क्योंकि वह शरीर धारी नहीं है। यह 'अनुक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार' है। रामचन्द्रजी पालम्वन विभाव हैं, उनकी वनयात्रा का समाचार और वियोग से उत्पन्न हुना शोकस्थायी भाव है । रामचन्द्रजी के शोल, स्वभाव, सुन्दरता, कोमलता आदि गुणों का स्मरण उद्दीपन विभाव है। राना, सिर पीटना, विलपना आदि अनुमान है । वह मोह, विषाद, चिन्ता, उग्रतादि संजारी भावों से पुष्ट होकर 'करुण-रस' हुआ है। चौ--मिलेहि माँझ विधिबात बिगारी । जहँ तह देहि कैकइहि गारी॥ एहि पापिनिहिँ बूझि का परेऊ। छाइ भवन परपावक धरेज॥१॥ • या विधाता ! इसने मिल कर बीच में पात विगाड़ दी, जहाँ तहाँ केकयी को गाला देते हैं। कहते है इस पापिनी को क्या समझ पड़ा कि छाये हुए घर पर अग्नि रख. पुरवासियों के कहने का असली मतलब तो यह है कि केकयी ने रामचन्द्रजी.को वनवास देकर अयोध्या का नाश कर दिया, परन्तु इसे न कह कर उसका प्रतिबिम्ब मात्र कथन करना कि छाये हुए मकान में आग लगा दी 'लखित अलंकार' है । यहाँ पापिन' विश्वासघातिन और घर फूंकनेवाली कहना ही गाती है। . दिया ॥१॥