पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४७५

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४५६ रामचरित-सानस । चौ०-अस विचारि उर छाड्हु कोहू । सेोककलङ्क कोठि जनि होहू ॥ भरतहि अबलि देहु जुबराजू। कानन काह राम कर काजू ॥१॥ पेसा हृदयं में विचार कर क्रोध त्याग दो, शोक और कलकका गज (वखार) मत बनो। अवश्य ही भरत को युवराज पद दी परन्तु रामचन्द्र का वन में कौन सा काम है ? ॥१॥ नाहिँ न राम राज के भूखे । घरम-धुरीन , विषय-रस रूखे । गुरु गृह बसहुँ राम तजि गेहू । नुप सन अस बर दूसर लेहू ॥२॥ रामचन्द्रजी राज्य के भूले नहीं हैं, वे धर्म के बोझ को उठाने वाले और विषय के प्रानन्द ले उदासीन हैं । घर छोड़ कर रामचन्द्रजो गुरु के स्थान में निवास करें, ऐसा दूसरा वरदान राजा से मांग लो॥२॥ सभा की प्रति में 'गुरु गृह बसहि पाठ है। जौँ नहिँ लगिहहु कहे हमारे । नहि लागिहि कछु हाथ तुम्हारे। जौँ परिहास कीन्हि कछु हाई। तो कहि प्रगट जनावहु सोई ॥३॥ यदि हमारे कहने में न लगोगी तो तुम्हारे हाथ कुछ न लगेगा। यदि कुछ हंसी की हो तो उसे भी प्रत्यक्ष कह कर जना दो ॥३॥ राम्म सरिस सुत कानन जोगू । काह कहिहि सुनि तुम्ह कहँ लोगू । उठहु बेगि सोइ करहु उपाई। जेहि बिधि सोक-कलंक नसाई ॥१॥ रामचन्द्रजी के समान पुत्र वन के योग्य हैं, यह सुन कर तुमको लोग क्या कहेंगे? इस. लिए तुरन्त उठो और वही उपाय करो जिस प्रकार शोक तथा कलङ्क का नाश हो ॥५॥ हरिगीतिका-छन्द । जेहि माँति सेोक कलङ्क जाइ, उपाय करि कुल पालही । हठि फेरु रामहि जात बन, जनि बात तृसरि चालही ॥ जिमिभानुबिनुदिन मानविनुतनु चन्द बिनु, जिमिजामिनी। तिमि अवध तुलसीदास-प्रबिनु, समुझिाँजियमामिनी ॥२॥ जिस तरह शोक और कलङ्क जाय, वही उपाय कर के कुल की रक्षा करो। रामचन्द्रजी को वन जाते समय हठ करके लौटाओ, दूसरी बात मत चलाओ। जैसे सूर्य के रिना दिन, प्राण, के बिना शरीर और चन्द्रमा के बिना रात नहीं साहती वैसे तुलसीदास के स्वामी रामचन्द्र के बिना अयोध्या अशोभन होगी, हे कोपने भला तू मन में समझ ॥२॥ . . 1