पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४७६

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. द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । सो०-सखिन्ह सिखावन दीन्ह, सुनत मधुर परिनाम हित । तेइ कछु कान न कीन्ह, कुटिल प्रसोधी । कूबरी ॥३०॥ सलियों ने वह सिखावन दिया जो सुनने में मधुर और जिसका फल कल्याणकारी है। परन्तु उसने कुछ कान नहीं दिया अर्थात् ध्यान ही न दिया, क्योंकि दुष्टा कूवरी की सिखाई (चेलिनी ) है ॥५०॥ चौ०-उतरु न देइ दुसह रिस रूखी । मुगिन्ह चितव जनु बाधिनि भूखी। व्याधिअसाधिजानितिन्हत्यागी। चली कहत मंति-सन्द अभागीं ॥१॥ केकयी अत्यन्त कष्टदायक क्रोध से भरी उत्तर नहीं देती है, ऐसा मालूम होता है मानों हरनियों की ओर भूखी वाधिन निहारती हो। असाध्य रोग जान कर उन सों ने सिखाना छोड़ दिया और अभागिनी नीच बुद्धिवाली कहती हुई चलो ॥१॥ करत यह दैव बिगाई। कीन्हेसि अस जस करइ न कोई । एहि बिधि बिलपहिँ पुर-नर-नारी । देहिँ कुचालिहि कोटिक गारी ॥२॥ इसको राज्य करते हुए होनहार ने नष्ट कर दिया, तभी तो ऐसा अनिष्ट किया जैसा कोई न करेगा। इस तरह नगर के स्त्री-पुरुष विलाप करते हैं और उस कुचालिनी को करोड़ों गालियाँ देते हैं ॥२॥ रामचन्द्रजी के बिरह से सब के हृदय में उपायापाय चिन्ताजन्य मनोभान होना 'विषाद सञ्चारीभाव' है। जरहिँ : विषम-जर लेहिँ उसासा । कवनि राम बिनु जीवन आसा ॥ बिपुल बियोग प्रजा अकुलानी । जनुजलचरगन सूखत पानी ॥३॥ विषम ज्वर से जलते हुए उलटी साँस लेते हैं और कहते हैं कि, विना रामवन्द्रजी के जीने को कौन सी आशा है ? सारी प्रजा वियोग के अपार दुःख से घबरा गई, ऐसा मालूम होता है मानो.पानी के सूखने से जलजीवा का समुदाय वेचैन हो रहा हो ॥३॥ रामचन्द्रजीका वियोग और विषमज्वर, नगर निवासी और जलजीव, वनयात्रा और जल का सूखना परस्पर उपमेय उपमान है । जल सूखने पर जलजीव व्याकुल होते ही हैं । यह 'उक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार' है । विषम ज्वर पाँच प्रकार का होता है--सन्तत, सतत, अन्येधु, तिजारी और चौथिया । इन पाँचों ज्वरों में पहले कम्प और पीछे दाह होता है तथा दम फूलने लगता है। यहाँ वियोग का भय कम्प है, तज्जनित सन्ताप दाह है, ज्वर से पीड़ित होने पर रोगी अधीर और जीवन से निराश हो जाता है उसी तरह सब स्त्री-पुरुष अधीर तथा जीवन से निराश हो रहे हैं। ५३