पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४७८

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । प्रेम प्रसाद न कछु कहि जाई । रङ्क धनद-पदवी जनु पाई ॥ सादर सुन्दर बदन निहारी । बोली मधुर वचन महतारी ॥३॥ उनका प्रेम और श्रानन्द कुछ कहा नहीं जाता है, वे ऐसी प्रसन्न मालूम होती हैं मानो कङ्गाल ने कुबेरकी पदवी पाई हो। पादर के साथ सुन्दर मुख देख कर माता जी मीठी वाणी से बोली ॥३॥ . दरिद्री अनुष्य कुवेर का ओहवा पाता नहीं यह केवल कवि की कल्पना मात्र 'अनुक्तवि- षया वस्तूत्प्रेक्षा अलङ्कार' है। हाँ-यदि इसको देश कोटी में इस प्रकार कहे कि मानो रङ्क बहुत बड़े धनी का दर्जा ण गया हो, तब 'उक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलङ्कार' होगा। कहहु तात जननी बलिहारी। कहिँ लगन सुद-मङ्गलकारी सुकृत-सोल सुख सीव सुहाई । जनम-लाम कइ अवधि अघाई ॥४॥ हे पुन ! माता बलैया लेती है—कहिये, वह श्रानन्द मन्नलकारी शुभ मूह कब है ? जो मेरे पुण्यों की पराकाष्ठा और सुन्दर सुखों की सीमा है, जिससे मैं जन्म के लाभ को अन्तिम सीमा ले अघाऊँगी ॥४॥ दो०-जेहि चाहत नर नारि सब, अति आरत एहि भाँति । जिमि चातक चातकि दृषित, वृष्टि सरद-रितु स्वाति ॥३२॥ जिस (लग्न) को सब स्त्रीपुरुष इस तरह अत्यन्त दीन होकर चाहते हैं जैसे पपीहा-पपि- हरी शरद ऋतु में स्वाती नखत की जल-वृष्टि के प्यासे होते हैं ॥५२॥ चौ०-ताल जाउँ बलि बेगि नहाहू । जो मन भाव मधुर कछु खाहू॥ पितु समीप तब जायहु भैया । म बाड़ि बार जाइ बलि भैया॥१॥ हे पुत्र ! मैं बलि जाती हूँ, शीघ्र स्तान कीजिये और जो मन में भावे कुछ मीठा खा लीजिये। हे भैया। तब पिता के पास जाना, माता वलैया लेती है (जल पान के लिये तुम्हें ) बड़ी देरी हुई ॥ १ ॥ संस्कार-विधान और सम्पूर्ण आनन्दोत्सवों में देव-पूजन की क्रिया सम्पन्न हुए बिना अन्न भोजन वर्जित है, इसीसे माता मिठाई खाने को कहती हैं। मातु बचन सुनि अति अनुकूला । जनु सनेह सुरतरु के सुख-मकरन्द भरे स्रिय-मूला। निरखि राम-मन-सँवर न भूला ॥२॥ माताजी के अत्यन्त अनुकूल बचन सुन कर वे रामचन्द्रजी को ऐसे मालूम हुए मानों स्नेहरूपी कल्पवृक्ष के फूल हो । सुखरूपी मकरन्द (पुष्प-रस) ले भरे जिसकी जड़ राजलक्ष्मी है। ऐसे फूल को देख कर रामचन्द्रमी का मन रूपी भ्रमर भूला नहीं ॥२॥ स्नेह वृक्ष नहीं है जो उसमें फूल लगता हो यह केवल कवि की कल्पना मात्र 'अनुक- विषया वस्तूत्प्रेक्षा अलङ्कार' है। माता पर कल्पलता का उनके बचनों पर फूल का, सुस्त्र पर । फूला॥