१२० रामचरित मानस । मकरन्द का. श्रीमूल अर्थात् राज्यप्राप्ति की प्रमिलापा से परिपूर्ण पर मधुरता का और रामचन्द्रजी के मन पर भौरे को आरोपण करना 'परम्परित रूपक अलङ्कार' है। भ्रमर मक- रन्द का लोभी उसमें लुब्ध होता है, परन्तु रामचन्द्रजी का मन रूपी भ्रमर लुग्ध नहीं हुमा, यह द्वितीय विषम अलङ्कार की ध्वनि है। धरम-धुरीन घरम-गति जानी । कहेउ मातु सन अति मृदुबानी । पिता दोन्ह माहि कानन-राजू । जहँ साँति भार बड़ काजू ॥३॥ धर्म-धुरन्धर रामचन्द्रजीने धर्मकी गति जानकर अत्यन्त कोमल वाणी मातासे कहा- हे माताजी ! पिताजी ने मुझे धन का राज्य दिया है, जहाँ सय तरह से मेरा बड़ा काम है ॥३॥ बड़े काम में गौ, प्राक्षण, पृथ्वी और देवताओं की भलाई व्यजित है। आयसु देहि मुदित मन · माता । जेहि सुद-मङ्गल कानन जाता। जनि सनेह बस दुरपसि गरे। आनंद अख्न अनुग्रह तारे ॥१॥ हे माताजी ! प्रसन्न मनसे आज्ञा दीजिये जिससे मेरी वन-यात्रा प्रानन्द-मङ्गलकारी हो। तू स्नेह के वश भूल कर डर मत, हे माता ! तेरी कृपा ले मुझे आनन्द ही होगा (भर की कोई बात नहीं है ) दो-बरण चारि-ट्स विपिन बसि, करि पितु बचन प्रमान । आइ पाय पुनि देखिहउँ, मन जनि करसि मलान ॥३॥ चार और दस वर्ष वन में रह कर पिता जी के वचन को प्रमाणित करके फिर भाकर चरणों का दर्शन करूंगा, तू अपना मन खेदिल न कर ॥५३॥ चौदह वर्ष की अवधि को चार और इस वर्ष रामचन्द्रजी ने इसलिए कहा कि माता के कोमल हृदय पर गहरी चोट न लगे तथा जाने के साथ ही श्रानो कहने में 'चपलातिशयोकि श्रलङ्कार' है। चौ-बचन चिनीत मधुर रघुबर के । सर सम लगे मातु उर करके । सहमि सूखि सुनि सीतलि बानी । जिमि जवास परे पावस पानी ॥१॥ . रघुनाथजी के नम्रता-युक्त वचन माता के हृदय में वाण के समान लगे और पीड़ा उत्पन। किया। शीतल पाणी सुन सहम कर सूख गई, जैसे जवासा पर वर्षा का पानी पड़े और कहि'न जाइ कछु हृदय विषादू । मनहुँ मृगी सुनि केहरि-नादू । नयन संजाल तन थर थर काँपी। माँजहि खाइ मीन जनु मापी ॥२॥ उनके हृदय का, विषाद कुछ कहा नहीं जाता, ऐसी मालूम होती हैं मानों सिंह की गर्ज ना सुन कर हरिनी विकल हो। आँखों में आँसू श्री गया और शरीर थर थर काँपने लगा, ऐसी जान पड़ती हैं मानों माँजा खा कर मछलो ज्याकुल हो ॥२॥ वह झुलस जाय ॥१॥ $