पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४८०

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द्वितीय सेापान, अयोध्याकाण्ड । ४२१ मौजा-एक प्रकार के मछलियों का रोग है। वह प्रायः वर्षा के प्रथम जल पड़ने पर होता है। उससे मछलियों वेहोश होकर पानी के ऊपर आ कर अधिकांश मर जाती हैं। धरि धीरज सुत-बदन निहारी। गदगद-बचन कहति महतारी ॥ तात पितहि तुरुह प्रान-पियारे । देखि मुदित नित चरित तुम्हारे ॥३॥ धीरज धर कर पुत्र के मुख की ओर निहार कर माताजी गद्गद फराठ से वचन कहती है। हे पुन ! आप तो पिता को प्राण के समान प्यारे हैं, तुम्हारे चरित्र को देख कर बेनित्य प्रसन्न होते थे ॥३॥ राज देन कहँ सुभ दिन साधा । कहेउ जान बन केहि अपराधा ॥ तात सुनावहु मोहि निदानू । को दिनकर-कुल भयउ कृसानू ॥४॥ राज्य देने के लिए शुभ दिन सोधघायो था, फिर किस अपराध से बन जाने को कहा। हे पुत्र ! इसका मूल-कारण मुझे सुनायो कि सूर्यवंश में कौन अशि हुमा nen पहले राज्य देना चाहते थे, फिर उसके विपरीत वनवास दिया 'तृतीय असंगति अलं- कार' है। सूर्यकुल में कौन अग्नि रूप पैदा हुआ ? आश्चर्या स्थायीभाव है। दो०-निरखि रामरुख सचिव-सुत, कारन कहेउ बुझाइ। सुनि प्रसङ्ग रहि मूक जिमि, दसा बरनि नहिं जाइ ॥५४॥ रामचन्द्र का रुख ताड़ कर मंत्री के पुत्र (सुमती) ने सब कारण समझा कर कई दिया । उस बात को सुन कर चुप रह गई, उनकी जैसी दशा हुई वह वर्णन नहीं की जा सकती ॥५॥ चौ-राखिन लकइन कहि सक जाहूं। दुहूँ भाँति उर दारुन दाहू। लिखत सुधाकर गा लिखि राहू। विधि-गति बाम सदा सब काहू॥१॥ न तो रख सकती है और न जाने को कह सकती हैं, दोनों तरह से हृदय में भीषण दाह है। मन में पछताती हैं कि विधाता की चाल सब के लिए सदा उलटी रहती है। तभी चन्द्रमा लिखते हुए लिखा गया राहु ?॥१॥ राज्याभिषेक होनेवाला था वह न होकर उलटे हुन्मा बनबांस ! माताजी के कहने का असली प्रयोजन तो यह है । परन्तु उसे सीधे न कह कर उसका प्रतिविम्ब मात्र चन्द्रमा के, स्थान में राहु का लिखा जाना कहना ललित अलंकार' है। धरम सनेह उभय मति घेरी । भइ गति साँप छर्छन्दरि केरी। राखउँ सुतहि करउँ अनुरोधू । धरम जाइ अरु बन्धु-बिरोधू ॥२॥ धर्म और स्नेह दोनों से बुद्धि घिर गई, उनकी दशा साँप और छछुन्दर की हुई। सोच. ती हैं कि यदि मैं आग्रह से वाधा डाल कर पुनको रख लेती हूँ तो मेरा धर्म जाता रहेगा और भाई भाई में विरोध बढ़ेगा ॥२॥ &