पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४८१

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A ४२२ रामचरितमानस धर्म के विचार से रोक नहीं सकतीं और स्नेह के कारण जाने को नहीं कह सकती। ठीक वही दशा हुई, जैसे साँप छछू दर को पकड़ कर छोड़ दे तो अन्धा हो जाय और निगले तो मर जाय । उसको इन सोनों बातों का परिशान रहता है, इससे महान् असमञ्जस में पड़ जाता है। कहउँ जान बन तो बडि हानी । सङ्कट-सोच बिबस भइ रानी। बहुरि समुक्ति तिय-धरम सयानी । शम भरतदोउ सुत सम जानी ॥३॥ जो बन जाने को कहती है तो बड़ी हानि है, इस प्रकार सकार और सोच के अधीन राना हुई। फिर सयांनी (कौशल्याजी) ने मन में स्त्री-धर्म को समझ कर रामचन्द्रजी और भरतजी दोनों पुत्रों को बराबर जाना ॥ ३ ॥ सरल सुभाउ राम सहतारी । बोली बचन धीर धरि भारी॥ तात जाउँ बलि कीन्हेहुनीका । पितु आयसु खन्न धरम क टीका ॥१॥ रामचन्द्रजी की माता सीधे स्वभाव से बड़ा धीरज धर कर वचन बोली । पुत्र ! मैं तुम्हारी बलि जाती है तुमने अच्छा किया, पिता की भाशा पालन करना सब धर्मों का शिरोमणि है॥४॥ जिन रामचन्द्रजी के मुख की शोभा राजतिलक होने की सूचना से प्रसन्नता को नहीं प्राप्त हुई और वनवास सन फर लेश मात्र सलिन नहीं हुई। उनकी माता ऐसे भीषण आपत्काल में भी यथार्थ पचन बोली, यह योग्य ही है। कारण के समान कार्य का वर्णन होना 'द्वितीय सम अलंकार' है। दो-दराज देन कहि दीन्ह बन, मोहि न सो दुख लेस । तुम्ह बिनु भरतहि भूपतिहि, प्रजहि प्रचंड कलेस ॥५५॥ रोज्य देने को कह कर पनवास दिया, मुझे इसका लेशमान दुःख नहीं है । परन्तु तुम्हारे . विना भरत को, राजा को और प्रजा को भयङ्कर कष्ट होगा ॥ ५५ ॥ प्रत्यक्ष में माताजी ने कहा कि आपने बहुत अच्छा किया पिता की आक्षा का पालन प्रधान धर्म है अवश्य कीजिये । पर इसमें छिपा हुआ निषेध भी है कि माप के बिना भरत, राजा, प्रजा लय को कठिन क्लेश होगा 'व्यक्ताक्षेप अलंकार' है। चौo-जाँ केवल पितु-आयसु ताता । तो जनि जाहु जानि बड़ि माता। जौं पितु मातु कहेउ बन जाना । तो कानन सत्त अवध समानाin हे पुत्र ! यदि केवल पिता की आशा है तो मुझे बड़ी माता समझ कर मत जाइये । जो पिता-माता ने वन जाने को कहा है तो वन सैकड़ों अयोध्या के समान है ॥ १॥ चौपाई के पूर्वार्द्ध में वाच्यसिद्धात गुणीभूत व्या है कि पिता ने वन जाने को कहा है तष मैं रोकती हैं, मत जाइये। क्योंकि पुत्र के लिए पिता से पढ़ कर माता का गौरव मान्य है। उत्तरार्द्ध में जो पिता-माता दोनों ने कहा है तो धर्मशास्त्र का वचन है कि-"पितुर्वशगुणा ,