पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४८२

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। द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ४२३ माता गौरवादितिरिच्यते । मातुर्दशगुणामान्या विमाता धर्मभीरुणा माता पिता से दसगुना चढ़ कर मानने योग्य है और जिले धर्म का डर है उसके लिए अपनी माता से इसगुना अधिक सौतेली माता का मान करना चाहिए । अवश्य जाइसे, आप के लिए सैकड़ों अयोध्या फे बराबर वन है पितु-बन देव मातु बन-देवी । खग-मृग चरन-सरोरुह सेवी ॥ अन्तहु उचित नृपहि बनबासू । अय बिलोकि हिय होइ हरातू ॥२॥ पिता वा के देवता और माता धन को देवियाँ हैं, पक्षी-मृग चरण-कमलों के सेवक हैं । अन्त में राजा को वनबास ही उचित है, परन्तु अवस्था देख कर हदय में दुःख हो रहा है ॥२॥ बड़लागी बन अवध अभागी । जो रघुबंस तिलक तुम्ह त्यांगी ॥ कहउँ सङ्ग मोहि लेहू । तुम्हरे हृदय होइ सन्देहू ॥३॥ हे रघुकुल भूषण ! जो आपने अयोध्या को त्याग दिया तो यह बड़ी श्रमागिनी है और धन बड़ा भाग्यवान है । हे पुत्र ! यदि मैं कहूँ कि मुझे साथ ले चलो तो तुम्हारे हृदय में लन्देह होगा ॥ ३॥ अपनी शङ्का पर अप ही विचार करना कि आप सन्देह करेंगे मेरी माता आपत्काल में पति का साथ छोड़ना चाहती है, क्या वह पतिव्रता नहीं है ? वितर्क सञ्चारीभाव है। सबही के। प्रान प्रान के जीवन जी के ॥ तुम्ह कहहु मातु बन जाऊँ। में सुनि बचन बैठि पछिताऊँ।४॥ हे पुत्र ! श्राप तो सभी के परम प्यारे हैं, प्राण और जीवों के जीवन हैं । वेही आप कहते है कि माता मैं वन जाऊँ और मैं इन वचनों को सुन कर बैठी पछताती हूँ? ॥४॥ पहले माताजी ने कहा-पुत्र ! तुम सभी के परम प्यारे हो, अपने इस कथन की पुष्टि में सापक हेतु दिखाना कि प्राण के प्राण और जीव के जीव होने से सभी के प्रिय हो 'काव्य- लिंग अलंकार' है। उत्तरार्द्ध में यह कहना कि मैं इस बात को सुन कर बैठी पछताती हूँ अर्थातू इस भीषण शब्द के कान में पड़ते ही शरीर से प्राण निकले नहीं तो झूठी प्रीति दिला कर अपने प्रेम की व्यर्थ वातें क्या कहूँ ? काकुक्षिप्त गुणीभूत व्यंग है, क्योंकि माता के हृदय में अपार प्रेम है, किन्तु उसे मिथ्या ठहराकर मुकरना काकु है । दो०-यह बिचारि नहि करउँ हठ, झूठ सनेह बढ़ाइ । मानि मातु कर नात बलि, सुरति विसरि जनि जाइ ॥५६॥ यह विचार कर झूठा स्नेह बढ़ा कर हट नहीं करती हूँ । वलया लेती हूँ, माता का नाता मान कर मेरी सुध भूल न जाय ॥ १६ ॥ परस-प्रिय 1 .