पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४८३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रामचरितमानस । ६२४ चौ० देव पिसर सब तुम्हहि गोसाँई । राखहुँ पलक नयन की नाँई ॥ अवधि अम्बु मियपरिजन मोना । तुम्ह करुनाकर घरमधुरीना ॥१५ देवता, पितर और प्रभु सव श्राप ही को मान कर पलक तथा नेत्रों को तरह रखती हूँ। (१४ वर्ष की अवधि जल रूप है और प्यारे कुटुम्पी मछली रूप है, श्राप द्या-निधान और धर्म धुरन्धर हैं ॥१॥ अस बिचारि सोइ करहु उपाई । सबहि जिअत जेहि भेंटहु आई । जाहु सुखेन बनहिं बलि जाऊँ । करि अनाथ पुर परिजन गाऊँ ॥२॥ ऐसा समझ कर ( बीत जाने पर कोई जीते न रहेंगे यही उपाय करना जिसमें सय के जीते जी आ कर मिल जाना । मैं श्राप की बलि जाती हैं, कुटुम्चियों की वस्ती और नगर को अनाथ कर के सुख से वन को जाइये ॥२॥ प्रत्यक्ष में यह कहना कि प्रसन्नता से धन को जाइये किन्तु इसमें छिपा हुधा निषेध भी है। श्राप के वन जाने से फुटुम्बी और अयोध्या नगरी श्रनाथ हो जायगी 'व्यकाक्षेप अलंकार' है। सब कर आजु सुकृत-फल बोता। भयउ कल-काल विपरीता ॥ बहु बिधि बिलपि चरन लपटानी। परम अमागिनि आपुहिजानी ॥३॥ नाज सब के पुण्यों का फल जाता रहा, भीपण समय ही उलटा हो गया है। बहुत तरह विलाप कर के चरणों में लिपट गई और अपने को बड़ी श्रभागिनी समझा ॥३॥ दारून दुसह दाह उर व्यापा । बरनि न जाहिँ बिलाप-कलापा। राम उठाइ मातु उर लाई । कहि मृदु बचन बहुरि समुझाई १४॥ भयङ्कर असहनीय दाह हृदय में उत्पन्न हुआ, वे विलाप-समूह कहे नहीं जा सकते हैं। रामचन्द्रजी ने माता को उठा कर छाती से लगा लिया और फिर कोमल वचन कह कर सभा की प्रति में 'परनि न जाह विलाप कलापा' पाठ है; किन्तु राजापुरकी प्रति में 'जाहिं'। दो०-समाचार तेहि समय सुनि, सीय उठो अकुलाइ । जाइसासु पद-कमल जुग,बन्दि बैठि सिर नाइ ॥७॥ उस समय समाचार सुन कर सीताजी व्याकुल हो उठी। उन्होंने जा कर सामुके चोनों चरण-कमलों को प्रणाम किया और सिर नीचे किये वैठ गई गई ॥१७॥ चौ-दीन्हि असीस सासु मृदु बानी । अति सुकुमारि देखि अकुलानी॥ बैठि नमित मुख सोचति सीता । रूप-रासि पति-प्रेम पुनीता ॥१॥ सामु ने कोमल वाणी से आशीर्वाद दिया और उनकी अत्यन्त सुकुमारता देख कर घबरा गई। रूप की खानि और पति के प्रेम में पवित्र सीता जी बैठ कर नीचे मुख किये समझाया था सोचती हैं ॥१॥