पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४८४

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४२५ द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । चलन चहत बन जीवननाथू । केहि सुकृती सन होइहि साथू ॥ की तनु-प्रान कि केवल प्राना । बिधि करतब कछु जाइ न जाना॥२॥ प्राणनाथ वन को चलना चाहते हैं, देखना है किस पुण्यवान से साथ होता है ? या तो शरीर और प्राण दोनों साथ जायगे पाकि केवल प्राण ही जायगा, विधाता की करनी कुछ जाना नहीं जाती ॥२॥ साथ में स्वामी ने लिया तब तो शरीर और प्राण दोनों साथ बॉयगे और साथ में न लेंगे तो केवल प्राण जायगा, शरीर नहीं । या तो दोनों जाँयगे या एक ही, किसी एक बात का निश्चय न होना 'सन्देह अलंकार' है। या तो शरीर-प्राण दोनों जायगे और ऐसा न हुआतो खाली प्राण जायगा 'विकल्प अलंकार' है। दोनों अलंकारों का सन्देहसकर है। चारु चरन नख लेखति धरनी । नूपुर-मुखर मधुर कवि बरनी ॥ मनहुँ प्रेम-बस बिनती करही । हमहि सीय-पद जनि परिहरहौं ॥३॥ अपने सुन्दर चरण के नखों से धरती पर लिखने लगी, नूपुरों के मधुर शब्द को कवि वर्णन करते हैं । वेऐले मालूम होते हैं मानों प्रेम के अधीन होकर विनती करते हैं कि सीताजी के चरण हमें न त्यागे ॥३॥ बड़ नूपुरों में चरणों के सङ्ग रहने की इच्छा का होना असिद्ध माधार है । इस अफल में फल की कल्पना करना 'श्रसिद्ध विषया फलोत्प्रेक्षा अलंकार' है। मज्जु बिलोचन मोचति बारी। बोली देखि राम-महतारी । तात सुनहु सिय अति सुकुमारी । सासु ससुर परिजनहिँ पियारी ॥४॥ सीताजी सुन्दर नेत्रों से जल बहाती हैं, उनकी दशा देख कर रामचन्द्रजी की माता बोली । हे पुत्र ! सुनिये, सीता अत्यन्त सुकुमारी हैं और सासु ससुर तथा कुटुम्बीजनों की प्यारी हैं ॥४॥ दो-पिता जनक भूपाल-मनि, ससुर भानुकुल-भानु । पति रबिकुल-कैरव-बिपिन,बिधु गुन-रूप-निधान ॥८॥ जिनके पिता राजाओं के शिरोमणि जनकजी और सूर्यकुल के सूर्य' (दशरथजी) ससुर हैं; सूर्यवंश रूपी कुमुद-वन के चन्द्रमा तथा गुण भार रूप के स्थान (आप) स्वामी हैं ॥१८॥ चौ०-मैं पुनि पुत्रवधू प्रिय पाई । रूप-रासि गुन-सील सुहाई ॥ नयनपुतरि करि प्रोति बढ़ाई। राखेउँ प्रान जानकिहि लाई ॥१॥ फिर मैं ने रूप की खानि और सुन्दर गुण शीलवाली प्यारी पतोहू पाई । इन्हें आँखों की पुतली बना कर प्रीति बढ़ाई और जानकी में ही प्राण लगा रक्खा है ॥१॥ जानकीजी को नेत्र की पुतली स्थापन करना 'सारोपा लक्षणा' है। +