पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४८६

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. द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ४२७ कै तापस-तिय कानन-जोगू । जिन्ह तप हेतु तजा सब भोगू ॥ सिय बन बसिहितात केहि भाँती। चित्र लिखित कपि देखि डेराती ॥२॥ या तो तपस्वियों की स्त्रियाँ वन के योग्य हैं, जिन्होंने तप के लिए सब भोग विलास त्याग दिया है। परन्तु हे पुत्र ! सीता किस तरह वन में रहेंगी जो तसवीर में लिखे बन्दर को देख कर डरती हैं ॥ २॥ सीता पन में हरेगी, वहाँ वे कैसे निवास करेंगी, हेतुसूचक बात कह कर इसकी पुष्टि करना कि जो चित्र में बनाये हुए बन्दर को देख कर भयभीत हो जाती हैं, उनका सोषण वन में रहना कठिन होगा 'काव्यलिश अलंकार' है। सुर-सर सुभग बनज-बनचारी । डाबर जोग कि हंस-कुमारी ॥ अस बिचारि जस आयसु हाई। मैं सिख देउँ जानकिहि साई ॥३॥ देव-सरोवर के सुन्दर कमल-वन में विहार करनेवाली हंस की कुमारी क्या गडही के योग्य हो सकती है ? ऐसा समझकर जैसी आज्ञा हो वैसी मैं जानकी को शिक्षा दूं ॥३॥ जाँ सिय भवन रहइ कह अम्बा । मोहि कह होइ बहुत अवलम्बा । सुनि रघुबीर मातु प्रिय-बानी । सील-सनेह-सुधा जनु सानी ॥४॥ माताजी कहती हैं कि यदि सीता घर रह जाँय तो मुभा को बहुत आधार हो । माता की प्यारी वाणी सुन कर वह रघुनाथजी को ऐसी मालूम हुई मानों शील और स्नेह रूपी अमृत से सनी हुई हो ॥४॥ दो०-कहि प्रिय बचन बिबेक-मय, कीन्हि मातु परितोष । लगे प्रबोधन प्रबोधन जानकिहि, प्रगटि बिपिन गुन-दोष ॥६॥ विचार पूर्ण प्रिय वचन कह कर माता को सन्तुष्ट किया और जङ्गल के गुण दोष कह कर जानकीजी को समझाने लगे। ६० ॥ चौ०-मातु समीप कहत सकुचाही। बोले समउ समुझि मन माहीं॥ राजकुमारि सिखावन सुनहू ।आन भाँति जियजनिकछुगुनहू॥१॥ माता के समीप जानकीजी से कहते सकुचाते हैं, परन्तु मन में अवसर समझ कर बोले-हे राजकुमारी ! मेरा सिखावन सुनो, अपने मन में और तरह कुछ न सोचो ॥१॥ 'दूसरी तरह मन में कुछ न विचारों' इस वाक्य में वाच्यसिद्धान गुणीभूत व्या है कि जैसा मैं कहता हूँ, वैसा ही करो। आपन मार नीक जौं चहहू । बचन हमार मानि गृह रहहू ॥ आयसु मार सासु सेवकाई । सबबिधि भामिनि भवन मलाई॥२॥ यदि अपनी और मेरी भलाई चाहती हो तो हमारी बात मान कर घर रहो। मेरी आक्षा है कि सासु की सेवकाई करो। हे भामिनी ! इसमें तुम्हारा सब तरह घर में कल्याण होगा ॥ २ ॥