पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४९१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

i - रामचरित मानस । जहँ लगि नाथ नेह अरु नाते । पिय बिनु तियहि तरनिहुँ ते ता। तन धन धाम धरनि पुर राजू । पति बिहीन सब सोकसमाजू ॥२॥ हे नाथ ! जहाँ तक स्नेह और नाते हैं, विना पति के स्त्री को वे सूर्य से बढ़ कर तपानेवाले हैं । शरीर, सम्पत्ति, घर धरती, नगर और राज्य सब प्रीतम के बिना शौक के समाज हैं ॥२॥ 'पिय बिनु तियहि तरनिहुँ ते ताते' इस चरण में एक मात्रा अधिक होने से उच्चारण सखटक है । यदि मुझे मूल पाठ संशोधन का अधिकार होता तो पिय बिनु तियहि तरनि ते ता' बना देता। भाग रोग सम भूषन भारू । जम-जातना सरिस संसारू॥ प्राननाथ तुम्ह बिनु जग माँही। मा कहँ सुखद कतहु कछु नाहीं ॥३॥ भोगविलास रोग के समान और गहने वाम है। संसार याराज की दी हुई सासति है। हे प्राणनाथ ! आप के बिना जगत में मुझ को कहीं कुछ भी सुखदायी नहीं है ॥३॥ भोग को रोग और आभूषणों को बेझ के समान तथा संसार को यमदण्ड के बरा. बर वर्णन में 'लेश अलंकार' है। जिअ बिनु देह नदी बिनु बारी । तैसिअ नाथ पुरुष बिनु नारी। नाथ सकल सुख साथ तुम्हारे । सरद-बिमल-बिधु-बदन निहारे ॥४॥ जैसे जीव के विना शरीर और जल के विना नदी, हे नाथ ! वैसे ही पुरुष के बिना भी को जानना चाहिए । स्वामिन् ! आप के साथ में रह कर शरदकाल के निर्मल चन्द्रमा के समान मुख को देख कर मुझे सम्पूर्ण सुख मिलेगा ॥४॥ दो-खग-मृग-परिजन नगर-घन, बलकल बिमल दुकूल । नाथ साथ सुर-सदन सम, परन-साल सुख-मूल ॥६॥ पक्षी और मृग कुटुम्बी हैं, वन नगर है और वृत्तों की छाल निर्मल वस्त्र है। स्वामी के साथ में पत्तों की कुटिया सुख की जड़ देवताओं के मन्दिर के समान है ॥ ६५ ॥ चौ-बन-देवी बन देव उदारा । करिहहिँ सासु ससुर सम सारा॥ कुस-किसलय-साधरी सुहाई । प्रभु सँग मज्जु मनोज तुराई ॥१॥ वन की देवियाँ और धन के देवता भेष्ठ सासु ससुर के समान भलाई करेंगे। कुशा और कोमल पत्रों की सुन्दर गोनरी स्वामी के साथ में कामदेव के गद्दे की तरह मनोहर होगी ॥१॥ बनदेवी-वनदेव और सासु ससुर उपमान उपमेय हैं. सम-वाचक तथा सार-धर्म है। इसी प्रकार कुशा-किशलय की साथरी-उपमेय, कामदेव की शव्या-उपमान, मञ्ज सुहाई धर्म है। किन्तु वाचक नहीं है। पूर्वार्द्ध में पूर्णोपमा और उतरार्द्ध में वाचकलुप्तोपमा अलंकार है।