पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४९२

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । कन्द-मूल-फल अमिय अहारू । अवध-सौध सत सरिस पहारू । छिन छिन प्रभु-पद-कमलबिलोकी । रहिहउँ मुदित दिवस जिमिकोकी॥२॥ कन्द, मूल और फल का माहार ही अमृत होगा, अयोध्या के राजमहल के समान लौगुने सुहावने पहाड़ होंगे। क्षण क्षण स्वामी के चरणकमलों को देख कर मैं ऐसी प्रसन्न रहूंगी, जैसी दिन में चकई आनन्दित रहती है ॥२॥ बन-दुख नाथ कहे नाथ कहे बहुतेरे । अय विषाद परिताप घनेरे ॥ प्रभु-बियोग लवलेस समाना । सब मिलि होहिं न कृपानिधाना ॥३॥ हे नाथ ! आप ने भय, विषाद और धना सन्ताप वन के बहुत से दुःख कहे हैं । परन्तु हे कृपानिधान ! वे सब मिल कर स्वामी के वियोग के क्लेश के बराबर लवलेश मात्र भी नहीं. हो सकते ॥३॥ प्रभु-वियोग का दुःख उपमेय और वन के कहे हुए समस्त क्लेश उपमान हैं । उपमेय की घरावरी में उपमान का न तुलना 'चतुर्थ प्रतीप अलंकार' है। अस जिय जानि सुजान-सिरोमनि । लेइअ सङ्ग मोहि छाडिअ जनि । बिनती बहुत करउँ का स्वामी। करुना-मय उर-अन्तरजामी ॥४॥ हे चतुर-शिरोमणि स्वामिन् ! ऐसा मन में विचार कर मुझे सन लीजिए, छोड़िये नहीं। मैं बहुत विनती क्या कर, आप दया के रूप और हृदय के बीच की बात को जानने- वाले हैं ॥४॥ 'सुजान शिरोमणि-करुणामय और. उर अन्तर्यामी' संशाएँ साभिप्राय हैं, क्योंकि सुजान शिरोमणि ही होनेवाले परिणाम को जान सकता है। दया-खरूप ही भारत के दुःख को मिटाता है । उर अन्तर्यामी ही हृदय की यथार्थ वेदना को समझ सकता है। यह 'परिकराङ्कुर अलंकार' है। दो०-राखिअ अवध जो अवधि लगि, रहत न जानिय प्रान । दीनबन्धु सुन्दर सुखद, सील-सनेह-निधान ॥६६॥ हे दीनबन्धु, सुन्दर सुख देनेवाले, शील और स्नेह के स्थान स्वामिन् ! जो अवधि पर्यन्त मुझे अयोध्या में रखियेगा तो जानती हूँ कि मेरे प्राण न रहेंगे ॥ ६६ ॥ गुटका और सभा की प्रति में रहत जानियहि प्रान' पाठ है। इसका अर्थ होगा-"जो आप अवधि (१४ वर्ष) तक प्राय रहना समझे तो मुझे अयोध्या में रहने दें"। इस प्रकार के कथन में व्यक्ताक्षेप अलंकार' होगा। परन्तु राजापुर की प्रति गोस्वामीजी के हाथ की लिखी है, यद्यपि इन प्रतियों के पाठ सराहनीय है वो भी हमने प्रधानता कविजी के हस्तलिखित पाठ को ही दी है। सम्भव है कि काशीजी की प्रति में उन्होंने इस पाठ का संशोधन किया हो। ५५