पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४९३

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रामचरित मानस । ४३४ चौ०-मोहिमग चलतनहाइहिहोरी । छिनछिन चरन-सरोज निहारी ।। सबहि भाँतिपियसेवा करिहौ । मारग-जनितसकल खम हरिहै॥१॥ आप के चरण-कमलों को क्षण क्षण अवलोकन करने से मुझे राह चलने में थकावट न होगी। हे स्वामिन् I मैं सभी तरह आप की सेवा कऊँगी और मार्ग-गमन से उत्पन्न परिश्रम को दूर करूंगी ॥१॥ पाय पखारि बैठि तरु छाहीं । करिहउँ बाउ मुदित मन माहीं । समकन सहित स्याम-तनु देखे। कहँ दुख समउ प्रानपति पेखे ॥ वृक्ष की छाया में बैठ कर पांव धोकर मन में प्रसन्न हो हवा काँगो पसोने के विन्दुमा सहित श्याम शरीर देख कर प्राणनाथ के अवलोकन से मुझे दुःन का अवसर कहाँ रहेगा ? ॥२॥ सम महि तन तरु पल्लव डासी। पाय पलोटिहि सब निसि दासी ॥ बार बार मृदु मूरति जोही । लागिहि ताति बयारि न माही ॥३॥ लमत्त भूमि पर घास और वृक्षों के पचे विछा कर यह सेवकिनी सारी रात पाँव दयावेगी। बार बार कोमल मूर्ति देख कर मुझे गरम हवा (लू) न लगेगी ॥३॥ को प्रभु सँग मोहि चितवनिहारा। सिंघ बधुहि जिमि ससक सियारा॥ सुकुमारि नाथ बन जोगू । तुम्हहिं उचित तप मो कहँ भागू ॥४॥ स्वामी के साथ में मुझे कौन देखनेवाला है ? जैसे सिंह को स्त्री (सिंहिनी) को खरहा और सियार कुदृष्टि से नहीं निहार सकते । हे नाथ ! मैं सङ्घमारी हूँ और आप धन के योग्य हैं । श्राप को तप करना उचित है और मुझ को भोगविलास ? ॥४॥ दो०-ऐसेउ बचन कठोर सुनि, जौँ न हृदय विलगान । तो प्रभु विषम बियोग दुख, सहिहहिं पाँवर प्रान ॥६॥ ऐसे कठोर वचनों को सुन कर भी यदि मेरा हृदय नहीं फट गया तो मेरे नीच प्राण स्वामी के वियोग का भीषण दुःख सहन करेंगे ॥६॥ जो कठिन बचन सुन कर छाती नहीं फटी तो स्वामी के भयङ्कर वियोग के दुःख को नीच प्राण सहेंगे 'सम्भावना अलंकार है। चौ० अस कहि सीय बिकल भइ भारी। बचन बियोग न सकी सँभारी ॥ देखि दसा रघुपति जिय जाना । हठि राखे नहिँ राखिहिमाना॥१॥ ऐसा कह कर सीताजी बहुत ही व्याकुल हुई, वेधचन के वियोग को नहीं सँभाल सकीं। ( तब सच्चे पियोग को कैसे सहन कर सकती थी ) उनकी दशा-देख कर रघुनाथजी ने जो मैं समझा कि हठ कर रखने से ये प्राण न रक्खेंगीं ॥१॥