पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४९४

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ४३५ सीताजी वचत-वियोग से अत्यन्त व्याकुल हुई कि अपने को सँभाल न लकी । उनकी व्याकुलता को देखकर अनुमान, वल से रघुनाथजी ने जान लिया कि जोर देकर घर में रखने से ये प्राण त्याग देंगी 'अनुमानप्रमाण अलंकार' है। कहेउ कृपाल भानुकुल नाथा। परिहरि सोच चलहु बन साथा ॥ नहिँ बिषाद कर अवसर आजू । बेगि करहु बन-गमन समाजू ॥२॥ सूर्यकुल के स्वामी कृपालु रामचन्द्रजी ने कहा कि सोच त्याग कर वन में साथ चलो। अाज विषाद का समय नहीं है, जल्दी वन को चलने की तैयारी करो ॥२॥ कहि प्रिय-बचन प्रिया समुझाई । लगे मातु-पद आसिष पाई ॥ बेगि प्रजा-दुख मेटब आई । जननीनिठुरबिसरिजनिजाई ॥३॥ प्रिय वचन कह कर प्रिया को समझाया और माताजी के चरणो में लग कर आशीर्वाद पाया । कौशल्याजी ने कहा -जल्दी आकर प्रजा का दुःख दूर करना और यह निर्दय माता भूल न जाय ॥३॥ फिरिहिदसाबिधिबहुरिकिमारी । देखिहउँ . नयन मनोहर जोरी ॥ सुदिन सुघरी तात का होइहि । जननीजियत बदन-बिधु जोइहि ॥४॥ या विधाता ! क्या कभी मेरी दशा फिर लौटेगी कि इस मनोहर जोड़ी को आँख से मैं देखूगी ? हे पुत्र ! वह सुन्दर दिन और शुभ घड़ी कब होगी कि जीते जी माता मुख-चन्द्र का अवलोकन करेगी ? ॥४॥ दो-बहुरि बच्छ कहि लाल कहि, रघुपति रघुबर तोल । कबहिं बोलाइ लगाइ हिय, हरषि निरखि हाँ गात ॥६॥ फिर वत्स, लाल, रघुपति, रघुवर, और पुत्र कह कर कहती हैं कि कब आप को धुला कर हृदय से लगाऊँगी और शरीर को देख कर प्रसन्न हूँगी ॥ ६ ॥ वत्स, लाल, रघुपति, रघुवर, और तात कई एफ सम्बोधनों में श्रादर की विप्सा है। चौ०- लखि सनेह कातरि महतारी। बचन न पाव विकल भइ भारी ॥ रामप्रबोधकीन्ह विधिनाना। समउ सनेह न जाइ बखाना ॥१॥ माताजी को स्नेह से अधीर और बहुत घबराई हुई देख कर कि उनके मुम से वात नहीं निकलती है। रामचन्द्र जी ने अनेक प्रकार से समझाया, उस समय का परस्पर स्नेह वर्णन नहीं किया जा सकता ॥१॥ तब जानकी सासु पग लागी । सुनिय माय मैं परम अमागी॥ सेवाः समय दैव बन दीन्हा । मोर मनोरथ सफल न कीन्हा ॥२॥ तब जानकोजी ने सानु के चरणों में लग कर कहा-हे माता! सुनिये, मैं बड़ी अभागिनी हूँ । सेवा के समय प्रारम्प ने मुझे वन दे दिया, मेरा मनोरथ सफल नहीं किया ॥२॥ 3