पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/४९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

.१३७ द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । किसी एक बात का निश्चय न होना 'सन्देह अलंकार' है । 'तृन तोरें' शब्द में अर्थ प्रकरण से सम्बन्ध स्थागने की अभिधा है न कि केवल तिनका तोड़ने का तात्पर्य है। बोले बचन रोम नय-नागर । सील सनेह सरल तात प्रेम-बस जनि कदराहू । समुझि हृदय परिनाम उछाहू ॥४॥ सुख-सागर ॥ नीति में प्रवीण और शील. स्नेह, सिधाई तथा सुख के समुद्र रामचन्द्रजी बोले-हे तात! प्रेम के अधीन होकर मत डरो, अन्त के प्रानन्द को मन में समझो ॥४॥ दो०-मातु-पिता-गुरु-स्वामि सिख, सिर धरि करहिँ सुभाय । लहेउ लाभ तिन्ह जनम कर, नतरु जनम जग जाय ॥७॥ माता, पिता, गुरु और स्वामी की शिक्षा जो स्वभाव ही से सिर पर धारण करते हैं, , उन्होंने जन्म का लाभ पाया, नहीं तो संसार में जन्म लेना वृथा है ॥७०॥ चौ०-असजियजानिसुनहुसिखमाई । करहु मातु-पितु-पद सेवकाई ॥ भवन भरत रिपुसूदन नाही । राउ बद्ध मम दुख मन माहीं ॥१॥ हे भाई! ऐसादय में समझ कर मेरा सिखावन सुनिये, आप माता-पिता के चरणों की सेवा करिये । घर में भरत-शत्रुहन नहीं हैं और राजा वृद्ध हैं उस पर मेरे विवाग का दुःख उनके मन में है ॥१॥ राज्य और घर के प्रबन्ध में राजा का वृद्धपन ही पर्याप्त बाधक है, उस पर पुत्र षियोग का शोक दूसरा प्रबल कारण भी विद्यमान रहना 'द्वितीय समुच्चय अलंकार' है। मैं बन जाऊँ तुम्हहिं लेइ साथा । होइ सबहि बिधि अवध अनाथा। गुरु पितु मातु प्रजा परिवारू । सब कहँ परइ दुसह दुख-भारू ॥२॥ मैं तुम्हें साथ लेकर धन जाऊँ तो अयोध्या सभी तरह अनाथ हो जायगी.। गुरु, पिता, माता, प्रजा और परिवार सब को असहनीय दुःख का बोझ पड़ेगा ॥२॥ रहहु करहु सब कर परितोषू । नतरु तात होइहि बड़ दोषू । जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी । सेो नृपअवसि नरक अधिकारी ॥३॥ घर रहो और सब को सन्तुष्ट करो, नहीं तो हे बन्धु ! बड़ा दोष होगा। जिस राजा के में प्यारी (नीतिक्ष) प्रजा ली होती है, वह राजा अवश्य नरक' का अधिकारी होता है ॥३॥ पहले साधारण बात कह कर फिर विशेष उदाहरण से उसका समर्थन करना 'अर्थान्तरन्यास अलंकार है। राज्य