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कुजड़े का गल्ला बनाने में कोई बात उठा नहीं रक्खा । हर्प का विषय है कि कतिपय विद्वानों ने कपिल कृत मूलपाठ की खोज लगाने में सराहनीय उद्योग किया और अच्छे अन्धप्रकाशकों ने उनका हाथ बंटाया। जहाँ आज से वीर्स पचीस वर्ष पहले दोपके सहित रामायण चापमा धेष्ट समझा जाता था, वहाँ अब खोपक रहित मूलपाठ की प्रति का आदर होने लगा है और पोषक ले लोग घृणा करने लगे हैं।

अपने समय के प्रसिद्धरामायती और परमभागवत मिर्जापुर निवासी पण्डित रामगुलामजी द्विवेदी ने गोसाँईजी के छोटे बड़े धारो ग्रन्थों के मूलपाठ खोज निकालने में खासा प्रयत्न किया था और इस कार्य में उन्हें अच्छी सफलता प्राप्त हुई थी। उनके द्वारा संशोधित रामचरितमानस के आधार पर क्षेपक रहितं गुटको के रूप में शुद्ध पाठ की रामायणं सांवत १४४१ में काशी के एक प्रेस से प्रकाशित हुई थी, हमने अपनी टीका में इसी 'गुट के अनुसार मूलपाठ रफ्ना है। द्विवेदी- जी के समकालीन पं० बन्दनपाठक, बाबू हरिहर प्रसाद और लाला इंकनलाल आदि रामायण के प्रेमियों ने इसी पाठको केविकृत विशुद्ध स्वीकार किया है।

नागरीप्रचारिणी सभा के सभापति महोदय की एक टीको १६ ई० में छपी है। इसी सटीक प्रति के मूल पाठ का कही कही अवलम्बन कर अपनी धीका में हमने उसको 'समा की प्रति' के नाम से उल्लेख किया है। सभा की प्रति में भी पाठान्तर फी कमी नहीं है, इस यात का पता हमे अयोध्याकाण्ड से बहुत कुछ लगा है। गुटका का पाठ आधिकांश कवित पाठ से मिलता है; किन्तु सभी की प्रति को पाठ उतना नहीं मिलता। इसी प्रकार उत्तरकोपंड में पाठान्तर की अधिकता है, जिसका यथास्थान टीका में हमने दिग्दर्शन किया है वई पुस्तकांवलोकन करते समय पाठकों को विदित होगा।

गोसाईजी के हाथ का लिखा अयोध्याकाण्ड जो अब तक राजापुर के मन्दिर में सुरक्षित है, अवधवासी लाला सीताराम बी०ए० ने उद्योग करके उसकी अक्षरशः प्रतिलिपि प्रकाशित फरायी है। अयोध्याकाण्ड का पाठ हमने इसी प्रति अनुसार रक्या है । अन्तर इस बात का है कि गोसाँईजी ने अवधी और वैसवाड़ी भाषा तथा उस समय की लेखप्रणाली के अनुसार राम को राम, भरत को भरतु, जन को जनु, मन को मनु, बन को वनु. धना के धनु, इत्यादि शब्दों को मात्रायुक्त लिखा है और सुख को सुष, दुख को दुप, लखि को लषि अर्थात 'ख' के स्थान में प्रायः 'प' का प्रयोग किया है। मारें, तोरें, हमारे, तुम्हारें, पहिचाने सयाने आदि शब्दों पर विन्दु लगाये हैं। उन्हो ने भाषा उन्ध में' और 'श' का बहिष्कार किया है तथा 'व के स्थान में अधिकांश 'व' से काम लिया है। हमने पूर्णरूप से तो इसका अनुकरण नहीं किया, वरन् वर्तमान लेखशैली के अनुसार शब्दों का रूप रक्खा है; किन्तु उससे न तो शब्द के रूप बदले हैं और न अर्थ-लालित्य में किसी प्रकार का अन्तर आया है। 'ण' और 'श' का प्रयोग हमने भी नहीं किया है। सम्भव है कि हिन्दी को चिन्दी निकालनेवाले समालोवकों के लिये यहं परिवर्तन आक्षेप का कारण हो और उन्हें कुछ कष्ट उठाना पड़े, फिर भी हम इसके निमिर क्षमा की याचना करते हैं।

उपयुक्त तीनों प्रतियों के अतिरिक न तो अन्यत्र से पाठ :ही लिया गया है और न अपना पाण्डित्य दर्शाने के लिये कहीं मनमाना वाई मरेड किया गया है । हाँ भरपयकांड में "मरम पचन जब