पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५००

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । १११ दें-भूरि भाग भाजन भयहु, माहि समेत बलि जाउँ । जौँ तुम्हरे मन छाडि छल, कीन्ह राम-पद ठाउँ ॥ ७४ ॥ मैं तुम्हारी चलि ज़ाती हूँ, तुम तो मेरे सहित बहुत बड़े सौभाग्य के पान हुए । यदि छल छोड़ कर तुम्हारे मन ने रामचन्द्र के चरणों में स्थान किया है । ७४ ॥ चौ०-पुत्रवत्ती जुवती जग साई । रघुपति भगत जासु सुत होई ।। नतरु बाँझ भलि बादि बिआनी। राम बिमुख सुतते हित जानी॥१॥ संसार में पुरवाली स्त्री वही है जिसका पुत्र रघुनाथजी का भक्त हो । नहीं तो बाँझ अच्छी है, राम-विमुखी पुत्र से अपनी भलाई जान कर उसको जन्माना व्यर्थ है ॥१॥ सुमिनाजी ने पहले विशेष बात कह कर फिर उसका साधारण सिद्धान्त से समर्थन करती हैं कि राम-विमुखी पुत्र से माता की भलाई नहीं होती 'अर्थान्तरन्यास अलंकार है। सभा की प्रति में 'राम-विमुख सुत ते हित हानी' पाठ है। किन्तु गुटका और राजापुर की प्रति में उपयुक पाठ है। तुम्हरेहि भाग राम बन जाहीं । दूसर हेतु तोत कछु नाही । सकल सुकेत कर बड़ फल एहू । राम-सीय-पद, सहज सनेहू ॥२॥ हे पुन ! रामचन्द्र तुम्हारे ही भाग्य से बन जाते हैं, इसमें दूसरा कारण कुछ नहीं है। सारे पुण्यों का एक यही बड़ा फल है कि रामचन्द्र और सीताजी के चरणों में सहज स्नेह हो ॥२॥ रामन्चद्रजी के वन जाने का असली कारण तो केकयी का वर माँगना है। उसको सुमि- बाजी कहती हैं दूसरा कारण कुछ नहीं है, इसमें केवल तुम्हारा सौभाग्य कारण है । क्योंकि अब तक सेवक सेवकिनियाँ टहल करती थी, किन्तु वन में सब प्रकार की सेवा एकमात्र तुम्ही को करना होगा 'हेत्वायन्हुति अलंकार' है। यहाँ यह भी भोवार्थ किया जाता है कि तुम शेष हो, पृथ्वी राक्षसों के बोझ से दब रही है। रामचन्द्र राक्षसों का संहार करेंगे जिससे तुम्हारे सिर का भार हलका होगा । राग रोष इरिषा मद माहू । जनि सपनेहुँ इन्ह के बस होहू ॥ 'सकल प्रकार बिकार बिहाई । मन क्रम बचन करेहु सेवकाई ॥३॥ राग, रोष, ईर्ष्या, मद और मोह इनके वश में सपने में भी मत होना । सम्पूर्ण प्रकार के दोषों को त्याग कर मन, कर्म और वचन से सेवकाई करनी ॥३॥ राग, रोष, ईया, मद और मोह इन शब्दों में लक्षणा-मूलक ध्वनि है । राग-राम- जानकी के अतिरिक्त दूसरे में प्रीति न करना। रोष-रामचन्द्र की आज्ञा पालन में समय कुसमय का विचार कर क्रोध न करना । ईया-अपने को बराबर मानने की कभी ईर्ष्या न करना । मद-अच्छी सेवा करने पर भी घमण्ड न करना । मोह-रामचन्द्र की विलक्षण लीलाओं को देख कर अज्ञान में मत पड़ना । ५६