पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५०३

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रामचरित मानस । १४४ पितु असीस आयसु मोहि दीजै । हरप समय बिसमउ कत कीजै तात किये प्रिय प्रेम प्रमादू । जस जग जाइ होइ अपवादू ॥२॥ हे पिताजी ! मुझे आशीर्वाद और श्राज्ञा दीजिये, हर्ष के समय आप शोक काहे को करते हैं ? हे तात ! प्रेम के वश होकर मनचाही असावधानता करने से यश संसार से चला जायगा और निन्दा होगी ॥२॥ सुनि सनेह-बस उठि नरनाहा। बैठारे रघुपति गहि बाँहा ॥ सुनहु तात तुम्हँ कहँ मुनि कहहीं । राम चराचर-नायक अहहीं ॥३॥ यह सुन राजा स्नेह वश उठ कर रघुनाथजी की माँइ पकड़ बैठाया। कहने लगे. हे तात ! आप को मुनि लोग कहते हैं कि रामचन्द्र जड़-चेतन के स्वामी हैं ॥३॥ सुन अरु असुभ करम अनुहारी । ईस देइ फल हृदय बिचारी । ॥ करइ जो करम पान फल साई । निगम नीति असि कह सब कोई॥४॥ शुभ और अशुभ कर्म के अनुसार ईश्वर हृदय में विचार कर (जीवों को) फल देता है। जो जैसा कर्म करता है वह वैसा ही फल पाता है, ऐसी वेद की नीति सब कोई कहते हैं॥४॥ शुभाशुभ कर्मानुसार ईश्वर का जीव को फल देना स्वयम् सिद्ध अर्थ है, परन्तु राजा दशरथजी ने फिर उसका विधान किया कि लो जैसा कर्म करता वह वैसा फल पाता 'विधि चलंकार' है। दो०-और करइ अपराध कोउ, और पाव फल-भाग । अति विचित्र अगवन्त गति, को जग जानइ जोग ॥७॥ अपराध दूसरा कोई करे और उसका फलं दूसरा कोई भागे ! ईश्वर की गति बड़ी अद् भुत है, उसको जानने योग्य संसार में कौन है ? ॥७७॥ अपराध मैं ने किया और उसका फल तुम्हें भोगना पड़ता है, कारण कहीं और कार्य- कहीं 'प्रथम असङ्गति अलंकार' है। ईश्वर को गति कौन जानने योग्य है, काकु से यह व्यजित होना कि कोई नहीं जानने योग्य हो सकता अर्थात् जिसने कम किया उसे फल भोगना चाहिए, यह अगूढ़ व्यङ्ग है। चौ०-राय राम राखन हित लागी । बहुत उपाय किये छल त्यागी । लखी राम रुख रहत न जाने । धरम धुरन्धर धीर सयाने ॥१॥ राजा ने रामचन्द्रजी को रखने के लिए छल छोड़ कर बहुत उपाय किये, परन्तु देखा कि रामचन्द्रजा का रुख रहने का नहीं है, यह जान कर धम के बोझ को उठानेवाले, धीरवान और (चतुर राजा ने धर्म को रक्खा) ॥१॥ .