पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५०४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ११५ 'छलत्यागी' शब्द में लक्षणामूलक व्यङ्ग है कि मेरी प्रतिज्ञा झूठी हो जायः किन्तु राम- चन्द्र वन में न जाँय । बहुत उपाय ऊपर कहे हुए वचन ही हैं । जब समझ गये कि रामचन्द्र सत्यसन्ध हैं न रहेंगे, तब धर्म को चतुराई से सँभाला अर्थात् रामचन्द्र रह जाँय तो धम भले ही चला जाय, पर जब रामचन्द्र नहीं रहते हैं तब धर्म न जाने पावे । सभा की प्रति में 'लखाराम रुख रहत न जाने' पाठ है। तब नप सीय लाइ उर लीन्ही । अति हित बहुत भाँति सिख दीन्ही ॥ कहि बन के दुख दुसह सुनाये। सासु ससुर पितु सुख समुझाये ॥२॥ तव राजा ने सीताजी को हृदय से लगा लिया और अत्यन्त प्रेम से बहुत तरह की शिक्षायें दी । वन के असहनीय दुःखों को कह कर सुनाया और सासु, ससुर, पिता के सुख को समझाया ॥२॥ सचिव-नारि गुरु-नारि सयानी। सहित सनेह कहहिं मृदु बानी ॥ तुम्ह कहँ तो न दीन्ह बनबासू। करहु जो कहहिं ससुर-गुरु-सासू ॥३॥ मन्त्रियों की स्त्रियाँ, गुरुपती (अरुन्धती) और अन्य चतुर स्त्रियाँ स्नेह के सहित कोमल वाणी से कहती है कि तुम को तो बनबास दिया नहीं है, इसलिए जो ससुर, गुरु और सातुएँ कहती हैं वह करो ॥३॥ दो-सिख सीतलि हित मधुर मृदु, सुनि सीतहि न सोहानि । सरद-चन्द-चन्दिनि लगत, जनु चकाई अकुलानि ॥८॥ यह शीतल, स्नेहयुक्त, मधुर और कोमल शिक्षा सुन कर सीताजी को अच्छी नहीं लगी। वे ऐसी मालूम होती हैं मानों शरद्काल के चन्द्रमा की किरणों के लगने (छू जाने) से चकवी व्यन हुई हो ॥७॥ चाँदनी के स्पर्श से चकई व्याकुल होती ही है। यह 'उक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार' है। चौ-सीय सकुच बस उतर न देई । सो सुनि तमकि उठी कैकेई । मुनि-पट-भूषन-भाजन आनी । आगे धरि बोली मृदु बानी ॥१॥ सीताजी संकोच वश उत्तर नहीं देती हैं, यह सुन केकयी क्रोधित होकर तेजी से उठी । मुनियों के वस्त्र, भूषण और बर्तन (कोपीन, मूज-मेखला, कमण्डलु) लाकर आगे रख दिया और कोमल वाणी से बोली ॥१॥ नृपहि प्रानप्रिय तुम्ह. रघुबीरा । सील सनेह न छाडिहि भीरा ॥ सुकृत सुजस परलोक 'नसाऊ । तुम्हहिँ जानबनकहिहिनकाऊ॥२॥ हे रघुवीर ! आप राजाको प्राण प्यारे हैं, वे भय से शील और स्नेह न छोड़ेंगे। चाहे