पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५०६

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४७ द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । बारहिँ बार जोरि जुग पानी । कहत राम सब सन मृदु बानी साइ सब भाँति मार हितकारी । जेहि ते रहइ भुआल सुखारी ॥४॥ बारम्बार दोनों हाथ जोड़ कर सब से रामचन्द्रजी कोमल वाणी से कहते हैं कि मेरा सब तरह से वही हितकारी है जिससे राजा सुखी रहे ॥३॥ दो०-मातु सकल मोरे बिरह, जेहि न होहिं दुख दोन ॥ सोइ उपाउ तुम्ह करेहु सब, पुरजन परम प्रबीन ॥८०॥ सब माताएँ मेरे वियोग के दुःख में जिसले दुःखी न हों, परम प्रवीण पुरजनों ! तुम सब वही उपाय करना ॥०॥ चौ०-एहि बिधिराम सबहि समुझावा । गुरु-पद-पदुमहरषिसिरनावा ॥ गनपति गौरि गिरीस मनाई। चले असीस पाइ रघुराई ॥१॥ इस तरह रामचन्द्रजी ने सभी को समझाया और प्रसन्न होकर गुरुजी के चरण- कमलों में मस्तक नवाया। गणेशजी, पार्वतीजी और शिवजी को मना कर सब से पाशी. दि पाकर ग्घुनाथजी चले ॥१॥ राम चलत अति भयउ बिषादू । सुनि न जाइ पुर आरतनादू ॥ कुसगुन लक्ष अवध अति सोकू । हरष-बिषाद बिबस सुरलोकू ॥२॥ रामचन्द्रजी के चलते समय बड़ा विपाद हुआ, नगर का आर्सनाद सुना नहीं जाता है। लङ्का में कुसगुन और अयोध्या में अत्यन्त शोक हो रहा है, देवता लोग हर्ष विषाद के वश हो रहे हैं ॥२॥ एक रामचन्द्रजी के वन-गमन से दो विरुद्ध कार्य होना कि लङ्का में अलगुन, अयोध्या में अत्यन्त शोक 'प्रथम व्याघात अलंकार' है। जन रामचन्द्रजी वन की ओर चलते, वय देवता प्रसन्न होते हैं और जब नगर-निवासियों के स्नेह के वश हो उन्हें समझाने लगते हैं, तब विपाद होता है । देवताओं के हृदय में हर्ष-विषाद दोनों भावों का साथ हो उदय होना - 'प्रथम समुच्चय अलंकार' है। गइ मुरछा तब भूपति जागे । बालि सुमन्त्र कहन अस लागे । राम चले बन प्रान न जाहीँ । केहि सुखलागिरहत तन माहीं ॥३॥ जब राजा की बेहोशी दूर हुई तब वे सचेत हुए और सुमन्त्र को बुला कर ऐसा कहने लगे। रामचन्द्र वन को चले गये परन्तु मेरे प्राण नहीं जाते हैं, न जाने किस सुख के लिए शरीर में ठहरे हैं ।। ३ ॥ एहि तें कवन व्यथा बलवाना । जो दुख पाइ तजिहि तनु प्राना॥ पुनि धरि धीर कहइ नरनाहू । लेइ रथ सङ्ग सखा तुम्हु जाहू ॥४॥ इससे जोरावर कौन पीड़ा होगी कि जो दुःस्न पाकर प्राण शरीर को त्यागेंगे। फिर धीरज घर कर राजो कहने लगे कि हे मित्र ! रथ लेकर तुम साथ जात्रो ॥ ४ ॥ .