पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५०८

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oge द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । चढ़ाया। सीताजी के सहित दोनों भाई रथ पर चढ़ और मन में अयोध्यापुरी को सिर नवा कर चले ॥१॥ चलत राम लखि अवध अनाथा। बिकल लोग सब लागे साथा ॥ कृपासिन्धुबहु बिधि समुझावहिँ । फिरहि प्रेम-बसपुनि फिरि आवहिँ ॥२॥ राजचन्द्रजी के चलने से अयोध्या को अनाथ जान कर सब लोग व्याकुल हो सङ्ग में लग गये। कृपासागर रघुनाथजी बहुत तरह समझाते हैं, जिससे फिरते हैं; किन्तु फिर लौट आते हैं ॥२॥ पुनि और फिरि शब्द पर्यायवाची हैं, परन्तु अर्थ भिन्न है। दोनों में पुनरुक्ति का आभास रहने से 'पुनरुक्तिवदाभास अलंकार' है। . लागति अवध भयावनि भारी। मानहुँ कालराति अँधियारी । , घोर जन्तु सम पुर-नर-नारी । डरपहिँ एकहि एक निहारी ॥३॥ अयोध्यापुरी बहुत ही डरावनी लगती है, ऐसी मालूम होती है मानो अन्धकार मयी कालरात्रि हो । नगर के स्त्री-पुरुष भीषण जन्तु के समान है, वे एक दूसरे को देख कर डरते हैं ॥३॥ फालरात्रि (मृत्यु की रात्रि) भयावनी होती ही है। रक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार' है। घर मसान परिजन जनु भूता । सुत हित मीत मनहुँ जमदूता ॥ बागन्ह बिटप बेलि कुम्हिलाही । सरित सरोवर देखि न जाहीं ॥४॥ घर मसान और कुटुम्बी मानों प्रेत हैं, पुत्र, हितैषी तथा मित्र ऐसे मालूम होते हैं मानों वे यमदूत हो । बागों में वृक्ष-लताएँ कुम्हिला गई हैं, नदी-नालाब देखे नहीं जाते हैं॥४॥ श्मसान के पिशाच और मसान-स्थल भयावना होता ही है । यमदूत अप्रिय और दुःख देनेवाले प्रसिद्ध हो हैं । यह 'उत्कविषया वस्तूप्रेक्षा अलंकार' है। विटप, बेलि, नदी, तालाब का कुम्हिलाना तथा शोभा-हीन होना वर्णन कर इनके सम्बन्ध से शोक कथन में अतिशयोक्ति की गई है। दो०-हय गय कोटिन्ह केलि-मृग, पुर-पसु चातक मार पिक रथाङ्ग सुक सारिका, सारस हंस चकोर ॥३॥ हाथी, घोड़े आदि करोड़ों प्रकार खेलवाड़ के मृग, नगर के प, पपीहा, मुरैला, कोयल, चकवा, सुग्गा, मैना, सारस, हंस और चकोर पक्षी ॥३॥ चौ०-राम-बियोग बिकलसब ठाढ़े। जहँ तहँ मनहुँ चित्र लिखि काढ़े। नगर सफल-बन-गहबर भारी। खग-मग बिपुल सकल नरनारी॥१॥ रामचन्द्रजी के वियोग ले व्याकुल सब जहाँ तहाँ खड़े हैं, वे ऐसे मालूम होते हैं मानो