पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५०९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

४५० रामचरित-मानस। लिख कर तसवीर खीचे हो । नगर फला हुआ घना दुर्गम जाल है और सारे स्त्री-पुरुष पक्षी तथा मृगों के समुदाय हैं ॥ १ ॥ सभा की प्रति में 'नगर सकल धन गहबर भारी' पाठ है, वहाँ 'सकल' शब्द में पुनरुकि दोष है। बिधि कैकई किरातिनि कीन्ही । जेहि दव दुसह दसहु दिसि दीन्ही ॥ सहि न सके रघुबर बिरहागी । चले लोग सब ब्याकुल भागी ॥२॥ प्रहाने केकयी को मीलनी बनाया जिसने दसों दिशाओं में अत्यन्त दुखदायीदावानल लगा दिया। रघुनाथजी की विरहाग्नि को लोग नहीं सह सके, सय व्याकुल होकर भाग चले ॥२॥ ऊपर की चौपाई में नगर पर फूले वन का आरोप और पुरवासी स्त्री-पुरुषों पर अगमृग का अारोप किया। केकयी पर किरातिनी का आरोप और रघुनाथजी के विरह पर दावाग्नि' का आरोपण करना 'परस्परित रूपक' है। सबहिं विचार कीन्ह मन माहौँ । राम-लखन-सिय बिनु सुख नाही। जहाँ राम तहँ सबइ समाजू । बिनु रघुबीर अवध नहि काजू ॥३॥ समी ने मन में विचार किया कि विना रामचन्द्रजी, लक्ष्मणजी और सीतामो के मुख नहीं है । जहाँ रामचन्द्रजी रहेंगे वहीं (सुख का) सारा समाज है। बिना रघुनाथजी के अयोध्या किसी काम की नहीं है ॥३॥ गमचन्द्रजी, लक्ष्मणजी और सीताजी के विना सुख नहीं तथा अयोध्या काम की नहीं 'प्रथम विनोक्ति अलंकार है। चले साथ अस मन्त्र दृढ़ाई । सुर-दुर्लभ सुख-सदन बिहाई॥ राम-चरन-पङ्कज प्रिय जिन्हहीं। बिषयभाग-घस करहिं कि तिन्हहीं ॥४॥ ऐसा मन्त्र पका कर के देवताओं को दुर्लभ मुखवाले घरों को त्याग साथ बसे । जिन्है रामचन्दजी के चरण कमल प्यारे हैं, क्या उन्हें विषयों का भोगविलास वश में कर सकता है। (कदापि नहीं). पूर्वार्द्ध में विरह की व्याकुलता से नगर निवासियों का तत्वज्ञान द्वारा यह निश्चय करना कि जहाँ रामचन्द्रनो हैं वहीं सब सुखों का समाज है । ऐसा सोच कर दुलंम सुख के निकेतों का त्यागना ' निद सञ्चारीभाव है। दो-बालक बुद्ध बिहाय गृह, लगे लोग सब साथ । तमसा तीर निवास किय, प्रथम दिवस रघुनाथ ॥४॥ बालक और बूढ़े घर छोड़कर सब लोग साथ में लग गये। पहले दिन रघुनाथजी ने तमसानदी के किनारे निवास किया ॥४॥ .