पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५१०

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । १५१ चौ०-रघुपति प्रजा प्रेम-बस देखी । सदय हृदय दुख भयउ बिसेखी ॥ कसनामय रघुनाथ गोसाँई । बेगि पाइअहि पीर पराई ॥१॥ रघुनाथजी ने मना को प्रेम के अधीन देखा, वे दयामय है अत: इनके हृदय में बड़ा दुःख हुआ। समर्थ रामचन्द्रजी कृपा के रूप हैं, पराई पीड़ा को तुरन्त जान जाते हैं ॥१॥ 'सत्य हृदय और करुणा-मय' शब्द साभिप्राय हैं, क्योंकि दयायुक्त इदरवाला दूसरे के प्रेम को पहचान सकता है और करुणा का रूप ही पराई पीड़ा को जान कर दुखी हो सकता है। यह 'परिकरावर अलंकार' है। कहि सप्रेम मृदु बचन सुहाये । बहु बिधि राम लोग समुझाये ॥ किये धरम-उपदेस घनेरे । लोग प्रेम बस फिरहि न फेरे सुन्दर प्रेम के साथ कोमल वचन कह कर रामचन्द्रजी ने लोगों को बहुत तरह से सम- झाया । घनेरे धर्मोपदेश किये, पर लोग प्रेम के अधीन हुए फेरने से नहीं फिरते हैं ॥२॥ सील-सनेह ·छाडि नहिं जाई । असमञ्जस-बस भे रघुराई । लोग साग-सम-बस गये साई । कछुक देव-माया मति माई ॥३॥ शील और स्नेह छोड़े नहीं जाते हैं, इससे रघुनाथजी असमास के अधीन हो गये। लोग शोक तथा थकावट के वश सो गये, उनकी बुद्धि कुछ एक (थोड़ी) देवताओं की माया ले करमाई गई ॥३॥ लोग शोक और श्रम के वश थे ही, उस पर देव-मोया ने उन्हें मूर्छित कर रामचन्द्रजी के वन-गमन कार्य को सुगम कर दिया 'समाधि अलंकार है। 'मोई' शब्द का लोग 'मोहित होना' अर्थ करते हैं, पर मोवना शब्द देश भाषा है जिसका अर्थ करमोना, भिगोना मिलाना आदि है। जबहिं जाम जुग, जामिनि बीती । राम सचिव सन कहेउ सप्रीती। खोज मोरि रथ हाँकहु ताता । आन उपाय बनिहि नहिँ बाता ॥४॥ जय दोपहर रात बीत गई, तब रामचन्द्रजी ने प्रीति पूर्वक मन्त्री से कहा कि, हे तात! दूसरे उपाय से बात न बनेगी, पता छिपा कर रथ हाँकिये ॥४॥ दो-राम-लखन-सिय जान चढ़ि, सम्भु चरन सिर नाइ । सचिव चलायउ तुरत रथ, इतउत्त खोज दुराइ ॥८॥ रामचन्द्रजी, लक्ष्मणजी और सीताजी शङ्करजी के चरणों में सिर नवा कर रथ पर चढ़े। मन्त्री ने तुरन्त रथ चलाया और इधर उधर से पता छिपा दिया ॥५॥ तात्पर्य यह कि पहले नगर की ओर रथ चलाया और वहाँ से ऐसे रास्ते से निकले कि जहाँ पहिये का चिह्न कुछ दूर तक प्रत्यक्ष नहीं होने पाया।