पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५११

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। । रामचरित-मानस। ४५२ चौ०-जागे सकल लोग अये भरू । गे रघुनाथ भयउ अति सारू, रथकर खोज कतहुँनहिँ पावहिँ । राम रामकहि चहुँ दिसि धावहिं॥१॥ सबेरा होने पर सब लोग जागे, बड़ा हल्ला हुआ कि रघुनाथजी चले गये। रथ का पता कहीं नहीं पाते हैं, चारों ओर राम राम कह कर दौड़ते हैं ॥१॥ मनहुँ बारिनिधि चूड़ जहाजू । भयउ बिकल बड़ बनिक-समाजू। एकहि एक देहि . उपदेसू । तजे राम हम जानि कलेसू ॥२॥ ऐसा मालूम होता है मानों समुद्र में जहाज़ डूब गया जिससे व्यापारियों की मण्डली वडी व्याकुल हुई हो । एक दूसरे को सिखाते हैं कि रामचन्द्रजी ने हम लोगों के कष्ट को जान कर त्याग दिया (साथ में नहीं लिया) ॥२॥ रामचन्द्रजी का वन गमन और जहाज़ का डूबना, प्रना और वणिक समाज परस्पर उपमेय उपमान हैं । जहाज डूबने पर उसके मालिक व्यापारियों का मण्डल विकल होता ही है। यह 'उक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार' है । एक दूसरे को उपदेश देते हैं, इसमें रामचन्द्रजी की कृपालुता व्यलित करने की ध्वनि है। यदि यह अर्थ किया जाय कि-"हम लोगों को दुःखदायी जान कर छोड़ दिया" तब भाव बिगड़ जाग है। रामचन्द्रजी की नगर निवासी प्रशंसा करते हैं न कि निन्दा । हाँ-यह अर्थ हो सकता है कि-"रामचन्द्रजी के त्याग देने से हम लोगों को क्लेश ही जानना चाहिए अर्थात् साथ लेते तो किसी प्रकार का कष्ट न होता। निन्दहि ओपु सराहहिँ मीना । धिग जीवन रघुबीर बिहीना ॥ जौं पैप्रिय बियोग बिधि कीन्हा। तो कस मरन न माँगे दीन्हा ॥३॥ अपनी निन्दा कर के मछली की बड़ाई करते हैं और कहते हैं कि बिना रघुनाथ जी के जीना धिक्कार है। यदि ब्रह्मा ने प्यारे का वियोग किया तो माँगने से मृत्यु क्या नहीं देते हैं । ॥३॥ मछली की सराहना करते हैं कि वह जड़ होकर अपने प्रेमी जल का वियोग होते ही प्राण तज देती है। हम लोग चेतन हैं और प्यार के वियोग से जीते जागते हैं तो इस जीवन पर धिक्कार है। चमत्कार में वाच्यार्थ और व्यशार्थ बराबर होने से 'तुल्यप्रधान गुणीभूत व्या है। एहि बिधि करत प्रलाप-कलापा। आये अवध भरे परितापा । विषम बियोग न जाइ बखाना । अवधि आस सब राखहिँ प्रानाugn. इस तरह सन्ताप से भरे समूह चिलाप करते हुए अयोध्या में आये । भीषण वियोग का दुःख कहा नहीं जाता । सब अवधि (१४ वर्ष बाद रामचन्द्रजी लौटेंगे, इस ) आशा से प्राण रखते हैं ॥४॥