पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५१३

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रामचरित-मानस । १५४ चौ०-यह सुधि गुह-निषाद जब पाई । मुदित लिये प्रिय-बन्धु बोलाई॥ लिय फल मूल मैंट भरि भारा। मिलन चलेउ हिय हरष अपारा॥१॥ अव यह ख़बर गुह-निषाद ने पाई, तब प्रसन्न होकर प्यारे कुटुम्बियों को बुला लिया। फल-मूल का बोझ भेट के लिए काँवरियों में भरवा कर मन में अपार हर्ष से मिलने चखा ॥ करि दंडवत भैंट धरि आगे। प्रभुहि बिलोकत अति अनुरागे । सहज-सनेह-बिबस रघुराई। पूछी कुसल निकट बैठाई ॥२॥ दण्डवत कर के भेट की चीज़ सामने रख दी और अत्यन्त प्रेम से प्रभु रामचन्द्रजी को निहारने लगा ! रघुनाथजी उसके स्वाभाविक स्नेह के वश हो समीप में बैठा कर कुशल- भलाई पूछी ॥२॥ राजापुर की प्रति में इस चौपाई का उत्तरार्द्ध नहीं है.। ऐसा प्रतीत होता है कि वह नकत करने से छूट गया है, क्योकि काशी की प्रति में यह चौपाई विद्यमान है और इसके विना प्रसङ्ग में विरोध पड़ता है। नाथ कुसल पद पङ्कज देखे । भयउँ भाग-साजन जन लेखे । देव धरनि-धन-धाम तुम्हारा। मैं जन नीच सहित परिवारा ॥३॥ गुह कहने लगा-हे नाथ ! चरण-कमलों को देखने से कुशल है, मैं भाग्यवान मनुष्यों में गिने जाने योग्य हुआ। हे देव ! मेरी धरती, सम्पत्ति और घर आपका है और मैं परिवार सहित श्राप का नीच दास हूँ ॥३॥ कृपा करिय पुर धारिय पाऊ । थापिय जन सब लोग सिहाऊ ॥ कहेहु सत्य सब सखा सुजाना। मोहि दीन्ह पितु आयसु आना ॥४॥ कृपा कर के गाँव में पाँव रखिये और मुझे अपना दास बनाइये, जिसमें लोग मेरे भाग्य की प्रशंसा करें। रामचन्द्रजी ने कहा-हे सुजान मित्र ! जो तुमने कहा वह सत्य है, परन्तु पिताजी ने मुझे और ही श्राधा दी है ॥ ४॥ पहले रामचन्द्रजी ने कहा कि जो तुम कहते है तुम्हारी धरती, धन, धाम सब मेराही है पधारने में मुझे प्रसन्नता है । फिर दूसरी बात कह कर अपनी कही दुई प्रथम बात का निषेध करते हैं कि पिताजी ने दूसरी आशा दी है, इससे ग्राम में प्रवेश न काँगा 'धका- क्षेप अलंकार' है। दो-बरप चारि-दस बास बन, मुनि-ब्रत-बेष-अहार । ग्राम-बास नहिँ उचित सुनि, गुहहि भयउ दुख-भार ॥८॥ चौदह वर्ष पर्यन्त मुनियों के व्रत, वेश और भोजन करते हुए धन मैं निवास कर्क । गाँव में बसना उचित नहीं, यह सुन कर गुह को मारी दुःख हुआ ॥ ८॥