पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५१४

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । १५५ चौ०-राम-लखन-सिय रूप निहारी। कहहिँ सप्रेम ग्राम नर-नारी । ते पितु मातु कहहु सखि कैसे । जिन्ह पठये बन बालक ऐसे॥१॥ रामचन्द्र, लक्ष्मण और सीताजी के रूप को निहार कर गाँव के पुरुष और स्त्रियाँ प्रेम के साथ कहती हैं। हे सखी! कहो तो वे पिता-माता कैसे हैं जिन्हों ने ऐसे बालकों को वन में भेजा है ? ॥१॥ जिन्हें राजमहल में रखना चाहता था उन्हें वन में भेज दिया व्यनार्थ द्वारा द्वितीय अस. गति अलंकार' प्रकट होता है । सुकुमार पुत्रों को वन में भेजा, वे माता-पिता कैसे (कठोर) हैं ? इसमें राजा-रानी की निर्दयता आजित होना 'वोच्यसिमाङ्ग गुणीभूत व्यङ्ग है। एक कहहिँ मल. भूपति कीन्हा । लोचन लाहु हमाहिँ बिधि दीन्हा ।। तब निषाद-पति उर अनुमाना। तरु सिंसुपा मनोहर जाना ॥२॥ एक कहते हैं कि राजा ने अच्छा किया हमें नेत्रों के लाभ का विधान दिया। तब निषाद- राज मन में विचार कर जाना कि सीलम का वृक्ष मनोहर है ॥२॥ लेइ रघुनाथहि ठाँउ देखावा । कहेउ राम सब भाँति सुहावा ॥ पुरजन करि जोहार घर आये । रघुबर सन्ध्या करन सिधाये ॥३॥ रघुनाथजी को ले जाकर वह स्थान दिखाया, रामचन्द्र जी ने कहा कि सब तरह सुन्दर है। पुर के लोग प्रणाम करके अपने अपने घर आये और रघुनाथजी सन्ध्या-बन्दन करने को गुह सँवारि साथरी डसाई । कुस किसलय मय मृदुल सुहाई ॥ सुछि फल मूल मधुर मृदु जानी। दोना अरि भरि राखेसि आनी ॥४॥ गुह ने कुश और कोमल पक्षों की सुन्दर मुलायम गोनरी तैयार कर के बिछाई । पवित्र, मीठे और नरम फल तथा मूल समझ कर दोनों में भर भर और लाकर रख दिया ॥४॥ दो-सिय सुमन्त्र धाता सहित, कन्द मूल फल खाइ। सयन कीन्ह रघुबंसमनि, पाय पलोठत भाइ ॥ ८ ॥ सीतोजी, सुमन्त और भाई लक्ष्मण के सहित कन्द, मूल, फल खा कर रघुवंश-मणि (रामचन्द्रजी) ने शयन किया, तब लक्ष्मणजी पाँव इषाने लगे ॥8॥ चौ०-उठे लखन प्रभु सोवत जानी। कहिसचिवहि सेविन मृदु बानी ॥ कछुक दूरि सजि बान-सरासन । जागन लगे बैठि बीरासन ॥१॥ प्रभु रामचन्द्रजी को सोते हुए जान कर लक्ष्मणजी उठे और कोमल वाणी से मंत्री को सोने के लिए कहा। आप धनुष-बाण सज कर कुछ दूर पर वीरासन से बैठ कर जागने लगे ॥६॥ चले ॥३॥