पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५१५

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. / रामचरितमानस । गुह बेलाइ पाहरू प्रतीती। ठाँव ठाँव राखे अति प्रीती । आपु लखन पहिं बैठेउ जाई । कटि माथी सर चाप चढ़ाई ॥२॥ गुह ने विश्वासी पहरेदारों को बुला कर बड़ी प्रीति से उनको जगह जगह रक्षा के लिए रख दिया। आप कमर में तरकस बाँध और धनुष पर वाण बढ़ा कर लक्ष्मण जी के पास जा बैठा ॥२॥ सभा की प्रति में 'कटि भाषा सर चाप चढ़ाई पाठ है, परन्तु गुटका और राजापुर की प्रति में 'भाथी' है । कविजी ने जानबूझ कर यहाँ भाथी शब्द इसलिए रक्खा है कि लवमणजी के त्रोण के समक्ष निषादराज के तरकस की लघुता व्यक्षित करना अभीष्ट है। सोवत प्रभुहि निहारिं निषादू । भयउ • प्रेम-बस हृदय विषादू ॥ तनु पुलकित जल लोचन बहई। बचन सप्रेम लखन सन कहई ॥३॥ प्रभु रामचन्द्रजी को (धरती पर) सोते हुए देख कर निपाद प्रेम के अधीन हो गया, उसके वृदय में खेद हुना। शरीर पुलकित हो गया और आँखों से जल बहने लगा. प्रीति के साथ स्वचमणजी से वचन कहने लगा ॥३॥ निषादराज के हृदय में चिन्ताजन्य मनोभङ्ग का होना 'विपाद सबारीभाव' है। प्रेम के कारण शरीर रोमाञ्चित होना आँखों से आँसू बहना, लक्ष्मण से वचन कहना अनु. भाव है। भूपति भवन सुभाय सुहावा । सुरपति सदन न पटतर आवा ॥ मनि- -भय रचित चारू चौबारे । जनु रति-पति निज-हाथ सँवारे ॥४॥ राजा दशरथजी के महल स्वाभाविक सुहावने हैं, जिनकी बरा में इन्द्र-भवन नहीं था सकता । मणियों से बनी सुन्दर बैठकें (बैंगले) ऐसी मालूम होती हैं मानो कामदेव ने उन्हें अपने हाथ से बनायी हो ॥४॥ पूर्वाद्धं मै राजमन्दिर के मेकाविले इन्द्रभवन को हान कहना कि वह बराबरी के योग्य नहीं 'तृतीय प्रतीप अलंकार' है। उत्तरार्द्ध में कोठे के ऊपर की वह कोठरी जिसमें चारों ओर दरवाज़ रहते हैं, उसको चौबारा, बँगला वा चालाखाना कहते हैं. । बैठक की सुन्दरता सिम आधार है किन्तु कामदेव राजगीर नहीं जो वर पनाया हो । प्रौढोक्ति द्वारा इस अहेतु को हेतु स्थापन करना सिविषया हेतूत्प्रेक्षा अलंकार' है। दो-सुचि सुबिचित्र सुभाग-मय, सुमन सुगन्ध सुबास पलंग-मज्जु मनि-दीप जहँ , सबबिधि सकल सुपास ॥ जो बड़ा ही पवित्र विलक्षण सुन्दर भोगविलास की सामग्रियों से परिपूर्ण और फूलो के सुगन्ध से सुवासित रहता है । जहाँ सब तरह सम्पूर्ण सुवीता है, मनोहर पलँग और मणियों के दीपक जलते हैं ।। 80॥ ।