पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५१७

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t १५८ रामचरित मानस । दो-कैकय-नन्दिनि मन्द-मति, कठिन कुटिल-पन कीन्ह । जेहि रघुनन्दन जानकिहि, सुख अवसर दुख दीन्ह ॥१॥ नीच बुद्धिवाली केकयो ने भीषण कुटिलता की, जिसने रघुनाथजी और जानकीजी को सुख के समय में दुःख दिया ॥ ४॥ 'मन्दमति' विशेषण साभिप्राय है, क्योंकि नीच बुद्धिवाली ही कठिन कुटिलता कर सकती है। यह 'परिकराङ्कुर अलंकार' है । केकयी की कुटिलता और नीचता का इस हेतु. सूचक बात से समर्थन करना कि जिलने रामचन्द्र और सीताजी को सुख के समय अनायास ही दुःख दिया 'काव्यलिङ्ग अलंकार' है। चौ०-भइ दिनकर-कुल-बिपट कुठारी । कुमतिकीन्हसबविस्वदुखारी ॥ अयउ बिषाद निषादहि भारी। राम-सीय महि सयननिहारी॥१॥ यह सूर्यकुल पी वृक्ष के लिए कुल्हाड़ी हुई, इस दुधुद्धि ने सारे संसार को डालो किया। रामचन्द्रजी और सीताजी को भूमि पर सोते हुए देख कर निपाद को बड़ा भारी विषाद हुभा ॥१॥ राम-जानकी का भूमि में सोना कारण और निषाद को विषाद होना कार्य है। कारण के समान कार्य का वर्णन 'द्वितीय सम अलंकार' है। बोले लखन मधुर मृदु-बानी । ज्ञान-बिराग भगति-रस सानी ॥ काहु न कोउ सुखदुख कर दाता । निज कृत करम भाग सुनु भाता ॥६॥ लघमणजी कोमल मधुर वाणी से बोले, जो ज्ञान, वैराग्य और भक्तिरसा सनी हुई है। हे भाई ! सुनो, कोई किसी को सुख वा दुःख देनेवाला नहीं है, सब अपने ही कर्मा का फल भोगना पड़ता है ॥२॥ कोई किसी को सुख-दुःख नहीं देता, इस साधारण बात का विशेष से समर्थन करना कि सब अपने किये कर्मों का फल भोगते हैं 'अर्थान्तरन्यास अलंकार' है। जोग बियोग भोग भल मन्दा । हित अनहित मध्यम भम फन्दा । जनम मरन जहँ लगि जगजालू । सम्पति बिपति करम अरु कालू॥३॥ मिलमा विछुड़ना, भला और बुरा फल भोगना, शत्रु-मित्र-मध्यस्थ का भ्रम-पूर्ण बन्धन, जन्म-मृत्यु, सम्पत्ति, विपत्ति, कर्म और काल जहाँ तक संसार के जाल हैं ॥३॥ धरनि धाम धन पुर परिवारू । सरग नरक जहँ लगि व्यवहारू ॥ देखिय सुनिय गुनिय मन माहीं । माह मूल परमारथ नाहीं ॥ धरती, गृह, धन, गाँव, परिवार, स्वर्ग और नरक का जहाँ तक व्यवहार है। जो देखने सुनने में आते हैं और मन में विचारे जाते हैं सब का अशान ही कारण है, इनमें पारलौकिक कार्य (मोक्ष साधन का उपाय) नहीं है ॥४॥ अनेक क्रियाओं का कर्ता (कारण) एक मशान को कहना 'कारक दीपक अलंकार' है।