पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५१९

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रामचरित-मानस । दो०-भगत भूमि भूसुर सुरभि, सुर हित लागि कृपाल । करत चरित धरि मनुज तनु, सुनत मिदहि जग जाल ॥३॥ छपालु रामचन्द्रजी अपने भक्त, पृथ्वी, ब्राह्मण, गैया और देवताओं के कल्याण के लिए मनुष्यन्देह धारण कर चरित करते हैं, जिसे सुन कर संसार के बन्धन नष्ट हो जाते हैं | चौ०-सखा समुझि अस परिहरि माहू।सिय-रघुबीर-चरन-रत होहू ॥ कहत राम-गुन भो भिनुसारा । जागे जग मङ्गल-सुख दारा ॥१॥ हे मित्र ! ऐसा समझ कर मोह को त्याग दो और सीतारधुनाथजी के चरणों में अनुरस हो । रामचन्द्रजी का गुण वर्णन करते सवेरा हो गया, जगत को मङ्गल और सुख देनेवाले (जानकीनाथ) जाग उठे॥१॥ सभा की प्रति में 'जागे जग-महल दातारा' पाठ है, परन्तु गुटका और राजापुर कीप्रति में सुख 'दारा' है 'धारा शब्द पत्नी, भार्या, स्त्री का पर्यायी है, इसी भ्रम से पोट बदला गया होगा । परन्तु 'दारु' शब्द दानशील, देनेवाला का भी पर्यायी है। सकल सौच करि राम नहावो । सुचि सुजान बट-छीर मैंगावा । अनुज सहित सिर जटा बनाये। देखि सुमन्त्र नयन-जल छाये ॥२॥ शुद्ध सुजान रामचन्द्रजी ने सम्पूर्ण शौच-कर्म करके स्नान किया और बड़ का द्ध मंग- वाया। छोटे भाई लक्षमणजी के सहित सिर पर जटाएँ बनाई, यह देख कर सुमन्त्र की आँखों में जल भर पाया ॥२॥ हृदय दाह अति बदन मलीना । कह कर जोरि बचन अति दीना नाथ कहेउ अस कोसलनाथो । लै रथ जाहु राम के साथा ॥३॥ उनके हृदय में बड़ी जान हुई और मुख उदास हो गया, हाथ जोड़ कर अत्यन्त दुःखसे वचन कहने लगे-हे नाथ ! कोशलेन्द्र दशरथजी ने ऐसा कहा कि तुम रथ लेकर रामचन्द्र के साथ जाओ। बन देखाइ सुरसरि अन्हवाई । आनेहु फेरि बेगि दोउ भाई ॥ लखन-राम-सिय आनेहु फेरी । संसय सकल सकोच निबेरी ॥४॥ धन दिखा कर और गङ्गाजी में स्नान कराकर दोनों भाइयों को जल्दी खौटा साना । लक्ष्मण, रामचन्द्र और सीता को सम्पूर्ण संशय सङ्कोच छुड़ा फर फेर लाना ॥४॥ दो०-नुप अस कहेउ गोसाँइ जस, कहिय करउँ बलि साइ । करि बिनती पायन्ह परेउ, दीन्ह बाल जिमि रोइ ॥६॥ हे स्वामी ! मैं आपकी बलि जाता हूँ राजा ने ऐसा कहा है। अब आप जैसा कहिये पड़ी कऊँ । बिनती कर के पाँवों पर गिरपड़े और जैसे बालक रोते हैं उसी तरह रो दिया ॥ ३ ॥ 3