पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५२

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श्रीगणेशाय नमः श्रीजानकीवल्लभो विजयते श्रीमद् गोस्वामि तुलसीदास-कृत रामचरितमानस प्रथम सोपान बालकाण्ड . प्रणाम करता ॥१॥ । अनुष्टुप्-वत्त। श्लोक--वर्णानामर्थसङ्घानां रसानां छन्दसामपि । मङ्गलानां च कर्तारौ वन्दे वाणीविनायका ॥ १ ॥ अक्षर, अर्थ-समूह, रस, छन्द और मङ्गल के करनेवाले सरस्वती और गणेशजी को मैं भवानीशडरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम् ॥२॥ श्रद्धा और विश्वास रूपी भवानी-शङ्कर को मैं वन्दना करता हूँ, जिनके बिना सिद्धजन अपने हृदय में स्थित ईश्वर को नहीं देखते ॥२॥ श्रद्धा में पार्वती के आरोप और विश्वास में शिवजी के आरोप से 'सम अभेद रूपक अलङ्कार' है। उत्तराद्ध में अर्थ का श्लेष है अर्थात् जिस श्रद्धा-विश्वास के बिना और जिन पार्वतीशिव के बिना सिद्ध पुरुषों को हृदयस्थ ईश्वर नहीं देख पड़ते ! बन्दे बांधमयं नित्यं गुरुं, शङ्कररूपिणम् । यमाश्रितो हि वक्रोपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते ॥३॥ मानमय, नित्य, शंकर पो गुरु की मैं वंदना करता हूँ, जिनका आश्रित हो कर टेढ़ा. चन्द्रमा भी सर्वत्र वन्दित होता है ॥३॥